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________________ प्राकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास डॉ० प्रेम सुमन जैन प्राचीन समय से ही भारत में शिष्ट और जन-सामान्य की भाषा का समानान्तर प्रयोग होता रहा है। भगवान् महावीर और बुद्ध के समय भी यही स्थिति थी। इन दोनो महापुरुषो ने भापा की इसी महत्ता को समझते हुए जनभापा को ही अपने उपदेशो का माध्यम बनाया था। तत्कालीन वह जनभाषा इतिहास मे मागधी (पालि) व अर्धमागधी (प्राकृत) के नाम से जानी गयी है। प्राकृत भाषा का सम्बन्ध भारतीय आर्य शाखा परिवार से है। अत प्राकृत का विकास भी भारतीय आर्य भापा के साथ साथ हुआ है। प्राकृत भाषा वैदिक युग मे भी लोक भाषाओ का अस्तित्व था। भाषाविदो ने उन्हें तीन भागों में विभक्त किया है (१) उदीच्य या उत्तरीय विभाषा (२) मध्यदेशीय विभापा तथा (३) प्राच्या या पूर्वीय विभाषा। इनमे से प्राच्या देश्य भाषा उन लोगो के द्वारा प्रयुक्त होती थी जो वैदिक संस्कृति से भिन्न विचार वाले थे। वैदिक साहित्य मे छान्दस भाषा का प्रयोग हुआ है। अत छान्दस भाषा से जो भाषा विकसित हुई उसे सस्कृत या लौकिक सस्कृत के नाम से जाना गया तथा प्राच्या विभापा से जी भाषा विकसित हुई उसे भगवान महावीर के समय मे मागधी के नाम से जाना गया है। इस प्रकार विकास की दृष्टि से प्राकृत और संस्कृत दोनो सहोदरा है । जनभाषा से दोनो उद्भूत है। क्रमश इन भाषाओ का साहित्य धार्मिक एव विद्या की दृष्टि से भिन्न होता गया अत इनके स्वरूप मे भी स्पष्ट भेद हो गये। सस्कृत व्याकरण के नियमो से शासित हो जाने से निश्चित स्वरूप को प्राप्त हो गयी तथा उसका सस्कृत' नाम रूढ हो गया। यह देवभाषा हो गयी। जबकि प्राकृत मे निरन्तर लोकभापा के शब्दो का समावेश होता रहता था। अत यह रही तो प्राकृत, किन्तु नाम नये-नये धारण करती रही। मागधी,
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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