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________________ भिक्षुगन्दानुसिन एक परिशीलन : १५५ विभक्ति विधायक कोई सूत्र नही है लेकिन 'अधिकरणवाचिनश्च' २१३।६८ इस सूत्र से नित्य षष्ठी होती है, तृतीया विभक्ति नहीं होती। इसलिए छात्रण हसितम् यह रूप पाणिनीय मे नही बनेगा। २० पारेमध्येन्त पष्च्या वा ३।१।३० पार आदि नाम षष्ठी अन्त वाले नाम के साथ विकल्प से समास होता है। उसके योग मे पारे, मध्ये, अग्रे इन तीन नामो मे जो एकारान्त है, वह निपात रहता है, उसका लोप नही होता। पार गङ्गाया. = पारेगङ्ग, मध्येगङ्ग, अग्र वनस्य =अग्रेवण, अन्तर्वण । पाणिनीय मे इस सूत्र मे अग्रे और अन्तर् इन दो शब्दो का ग्रहण नही किया गया है। इस सूत्र से उनके अग्रेवण और अन्तर्वण ये रूप नही बन सकते। २१ द्वित्रिचतुष्पूरणापादय. ३३१३६ यह सूत्र द्वि, नि और चतुर शब्द पूरण प्रत्ययान्त तथा अन आदि शब्दो से अश-अशि-समास मानता है। पाणिनीय अग्र आदि शब्दो से अग-अशि-समास नही मानता है। अर्धचतस्रा ३।११४६ अर्धचत्तस्त्र भात्रा. पाणिनीय मे यह सूत्र नहीं है। २३ परशत पर सहस्र परोलक्षा ३३११६२ इस सत्र से पर शत, पर सहस्र , परो लक्षा. ये तीन रूप बनते हैं । पाणिनीय मे यह सूत्र नहीं है अत. ये रूप नही बनते। २४ सर्वपश्चाददय: ३।१।६८ सर्वपश्चाद् सर्व चिर ये शब्द निपात है । पाणिनीय मे यह सून नही है। २५. सिंहादिभि पूजायाम् ३।११७६ पूजा के अर्थ मे सिंह आदि शब्द उपमा के अर्थ मे निपात हैं । समरे सिंह इव समरसिंहः। पाणिनीय मे यह सूत्र नहीं है। २६. अव्यय प्रवृद्धादिभि ३।११६७ अव्यय नाम प्रवृद्ध आदि के नाम के साथ नित्य समास होता है। पुन प्रवृद्ध, पुनरुत्स्यूत वास:। पाणिनीय मे यह सून नही है। इन शब्दो का अव्यय के साथ समास नही होता। २७ कृतापकृतादय ३३१११०६ कृतापकृत आदि शब्द निपात है । पाणिनीय मे यह सूत्र नहीं है । २२
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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