SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा अदादि गण के लिए क अनुबन्ध । जैसे इक स्मरण । दिवादिगण के लिए च अनुबन्ध । जैसे शोच् तनुकरणे । ४. धातुओ के सेट, वेट और अनिट् की पहचान धातु के उच्चारण मात्र से हो जाती है । अनिट् धातु के लिए अनुस्वार का अनुबन्ध है और वेट के लिए दीर्घ अकार । सेट् धातु के लिए कोई अनुबंध नहीं है। उद् | स्थानम् = उत्यानम् । भिक्षुशब्दानुशासन में इसकी सिद्धि केवल एक सूत्र 'उद स्या स्तम्भो. स' १।३।६४ से हो जाती है, जबकि पाणिनीय मे इसकी सिद्धि के अनेक सूत्र लगते है । वहा उत् के त् को द्, स को थ्, फिर थ् का लोप, द् को त् करके उत्थानम् रूप बनाया जाता है। ६. शिल्पी, खनक , रजक. आदि शब्दो के लिए भिक्षुशब्दानुशासन मे एक सूत्र है 'नृतिखनिरजिभ्य शिल्पियकट्' ५।११७६, जबकि पाणिनीय मे शिल्पिनिक ३।११४५, सूत्र है और उसकी कात्यायन वार्तिक है 'नृति खनिरजिभ्य एव' और पतजलि का भाष्य है 'नृति खनिभ्यामेव प्वन्' उणादी क्वनि । ७. लघु सिद्धान्त कौमुदी के हल सधि प्रकरण मे ४१ सूत्रो और कई वातिको से जो कार्य किया जाता है, वह कार्य इस व्याकरण के केवल २३ सूत्रो से हो जाता है। इस व्याकरण मे सरलता पर विशेष ध्यान दिया गया है। यदि 'युष्मदस्म(प्रकरण' के २२ सूत्रो को एक सूत्र मे उनके रूपो को निपात कर देते तो और सुगमता हो जाती। वैसे ही इंगलिश और हिन्दी व्याकरण की तरह द्विवचन को स्वतत्र स्थान नहीं देते तो और सुगमता हो सकती थी। 'गुरोवेकरच' गुरु के लिए एक वचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग होता ही है। पाणिनीय और भिक्षुशब्दानुशासन मे मुख्य अन्तर इस प्रकार है १. तृदन्ता समाना ११११९ असे लेकर ल तक के वर्ण हस्व, दीर्घ और प्लुत हो तो उनकी समान संज्ञा होती है। __पाणिनीय मे ह्रस्व और प्लुत लकार होता है परन्तु दीर्घ लुकार नहीं होता। २. क समासेऽध्यर्ध ११११५६ अव्यर्ध २००८ से क प्रत्यय या समास होने पर सख्यावद् होता है । अध्यर्ध 'क', अध्यर्ध सूर्पम् यह सून पाणिनीय मे नही है। ३. अर्धपूर्वपद पूरण ११११६० यह सूत्र भी पाणिनीय मे नही है।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy