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________________ भिक्षुशब्दानुशासन : एक परिशीलन मुनि श्रीचंद्र 'कमल' तेरापय धर्ममघ के अष्टमात्रार्य कालगणी का सस्कृत विद्या के प्रति विशेष लगाव था। वे अपने सघ मे इस विद्या का विकास देखना चाहते थे । इस विद्या के विकास के लिए व्याकरण का अध्ययन आवश्यक था। उस समय सारस्वत और सिद्धान्त चद्रिका ये व्याकरण उपलब्ध थे। सारस्वत का पूर्वार्द्ध और सिद्धान्त चद्रिका का उत्तरार्द्ध पढा जाता था। सार कौमुदी मिलने पर उसका अध्ययन चलने लगा। सिद्धान्त चद्रिका के समास आदि अपूर्ण स्थलो की पूर्ति सार कौमुदी से की जाती थी। दोनो व्याकरणो को मिलाकर पढना अपने आप मे उलझन भरा था। उस स्थिति मे आचार्यश्री कालूगणी की प्रबल भावना बनी कि तेरापथ सघ मे एक ऐसा सस्कृत व्याकरण हो जो सरल, सुवोध और समयोपयोगी हो । उनकी इम भावना को आकार देने वाले विद्वद्वर्य मुनिश्री पोथमल जी हुए। उनका अध्ययन आचार्य कालगणी की देख-रेख मे सपन्न हुआ था। व्याकरण उनका सबसे प्रिय विषय रहा। इसी सदर्भ मे उन्होने पाणिनीय, शाकटायन, सारस्वत, सिद्धान्त चद्रिका, मुग्ववोध, सारकौमुदी, जैनेन्द्र और सिद्धहमशब्दानुशासन आदि व्याकरणो का गहरा अध्ययन व अनुशीलन किया। वर्षों के अध्ययन के बाद आपने एक सङ्गिपूर्ण सस्कृत व्याकरण की रचना की जिसका नाम विशालशब्दानुशासन रखा । विशालशब्दानुशासन के सूत्रो मे परिवर्तन और परिवर्धन कर इस व्याकरण का निर्माण हुआ था। इमलिए प्रारभ मे इसका नाम विशालशब्दानुशासन रखा । मुनिश्री गणेशमल जी की प्रेरणा रही कि इसका नाम भिक्षुशब्दानुशासन रखा जाए। मुनिश्री चोश्रमलजी आचार्य कालूगणी के पास गए और नाम के लिए निवेदन किया। पास मे विराजित मत्री मुनि मगनलालजी स्वामी ने कहा मैं तो प्रारभ से कहता आ रहा है कि इसका नाम भिक्षुरादानुशासन रखा जाए। मत्री मुनि की बलवती प्रेरणा पर ध्यान देकर कालगणी ने स्वीकृति दे दी। उदयपुर मे विक्रमी संवत् १९६२ मे उसका नाम भिक्षुशब्दानुशासन कर दिया गया। भिक्षुशब्दानुशासन के सूत्रो की रचना मुनिश्री चोथमलजी ने की और
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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