SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सस्कृत व्याकरणो पर जनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन १२७ ६ न्यायरत्नावली खरतरगच्छीय आचार्य जिनचन्द्रसूरि के शिष्य व्यारत्नमुनि ने स० १६२६ मे सारस्वत व्याकरण के न्यायवचनो का एक विवरण इसमें प्रस्तुत किया है। वि० स० १७३७ मे लिखित एक प्रति लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद मे है। ७ प-सन्धिटीका मुनि सोमशील द्वारा यह प्रणीत है। रचनाकाल अज्ञात है। हस्तलिखित प्रति पाटन के भण्डार मे प्राप्त है । ८ पञ्चसन्धिबालाववोध (सामान्य) १८वी शती मे उपाध्याय राजसी ने इसकी रचना की थी। विषय का सकेत नामकरण से ही प्राप्त हो जाता है। बीकानेर के खरतर आचार्यशाखा के भण्डार मे इसका हस्तलेख है। ___६ प्रक्रियावृत्ति ___खरतरगच्छीय मुनि विशालकीति ने १७वी शती मे इसे बनाया था। बीकानेर मे श्री अगर चन्द नाहटा के संग्रह मे इसकी हस्तलिखित प्रति है। १० भाषाटीका मुनि आनन्दनिधान ने १८वी शताब्दी मे इसकी रचना की थी। नामकरण से ऐसा लगता है कि सरल सस्कृत भाषा का इसमे प्रयोग किया गया होगा। इसका हस्तलेख भीनासर के वहादुरमल वाठिया-सग्रह मे है। ११ यशोनन्दिनी दिगम्बर मुनि धर्म भूषण के शिष्य यशोनन्दी ने इसे बनाया था । ग्रन्थकार का स्वविषयक निर्देश निम्नावित है राजवाजविराजमान चरणश्रीधर्मसद्भूषण स्तपट्टोदयभूधरधुमणिना श्रीमद्यशोनन्दिना । १२ रूपरत्नमाला ___ तपागच्छीय भानुमेरू के शिष्य मुनि नयसुन्दर ने वि० स० १७७६ मे इसे बनाया था। अन्य मे प्रयोगो की साधानका है। ग्रन्थ का परिमाण १४००० श्लोक
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy