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________________ सस्कृत व्याकरणो पर जैनाचार्यों की टीकाए एक अध्ययन १२५ स्वल्पस्य सिद्धस्य सुवोधकस्य सारस्वतव्याकरणस्य टीकाम् । सुबोधिकाख्या रचयाचकार सूरीश्वर श्रीप्रभुचन्द्रकीति ।। (व्याख्यातृ प्रशस्ति , श्लोक १०)। ग्रन्थ के अध्ययन से सुबोधिका' नाम अन्वर्थ ही प्रतीत होता है, क्योकि इससे खण्डन-मण्डन के पक्ष प्राय नही ही दिखाए गए है। कुछ ही स्थलो मे पूर्वाचार्यों का भ्रम प्रदर्शित किया गया है । जैसे "भजा विण" (कृत् ० ४८) सूत्र की व्याख्या करते हुए कहा है कि कुछ आचार्य तत्त्व पृच्छता ति तत्वप्राट' शब्द को भी विण्प्रत्ययान्त मानकर यहा उद्धृत करते है परन्तु वह इसलिए ठीक नहीं है कि उसे 'क्विप् प्रत्यय के अधिकार में भी सिद्ध किया ही जाता है अत यहां उसे भ्रम वश पढ़ा जाता है ___"अन्न केचित् तत्त्व पृच्छतीति तत्त्वप्राट् इत्युदाहरण ५०न्ति, तदत न युज्यते । अग्रेक्विपप्रत्ययाधिकारे साधितत्वात् । इह तु भ्रमात् प०न्ति" (कृत ०४८)। सामान्यतया आचार्य ने मन्दमतिवाली के अववोधार्थ अनेक उपायो का अवलम्बन किया है। कहीं-कही पर कुछ शब्दो की व्युत्पत्ति या समासादि को भी बालबावार्थ ही दशित किया है। जैसे "वु से" सूत्रस्थ 'वु' पद की व्युत्पत्ति-- "७५च ऋच वृ तस्मात् वु से । अय समासो बालबोधनार्य दशित” (उत्तरर्धि २८।१-३)। यद्यपि खण्डन-मण्डन की चर्चा इसमे प्राय नही ही की गई है तथापि किन्ही पाठान्तर, शब्दो के प्रयोग आदि की प्रामाणिकता के लिए कुमारसम्भव, चन्द्रिका, प्रक्रियाकौमुदी, सरस्वतीकण्ठाभरण, भट्टि, श्रीमद्भागवत आदि ग्रन्यो तया पाणिनीय, वृत्तिकार, ग्रन्थकार, माघ आदि आचार्यों का उल्लेख किया है। अनेक सरल उपायो के साथ ग्रन्थ मे प्राय सूत्रस्थ पदो की संख्या का भी स्पष्ट निर्देश किया गया है । आख्यात प्रकरण मे धातुओ के रूप दिखाए गए है । अनुभूतिस्वरूप द्वारा दर्शित कुछ विशिष्ट रूपो की ही सिद्धि बताई गई है, मूलप्रोक्त सभी रूपो को नही बताया गया है । वे रूप जो पूर्वोक्त अन्य सूत्रो से सिद्ध होते हैं उन्हे भी सुगम कहकर प्राय नहीं दिखाया गया है। अन्य व्याकरण के मतो या सूनो को व्याकरणान्तर कहकर ही दिखाया गया है । जैसे क्वचित् दो या तीन कारको के युगपत् प्राप्त होने पर किसकी प्रवृत्ति होगी इसके निर्णय के लिए कातन्तसून को उद्धृत किया गया है याकरणान्तरे तु युगपद्धचने पर पुरुषाणाम्" (उत्तरधि १।१६) । 'प्, अ' आदि अनुबन्धो का प्रयोजन स्पष्ट किया है। किन्ही धातुओ के उकारादि अनुबन्धो का प्रयोजन उपारणसोकर्य भी बताया गया है। उभयपदी धातुओ के प्रकरण में कुछ ऐसी भी धातुए पढी गई है जिन्हे अन्य आचार्य केवल आत्मनेपदी या केवल परस्मैपदी ही मानते है टीकाकार ने ऐसे स्थलो मे 'एके आचार्या'
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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