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________________ ११८ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा की गई है, शेप को आवश्यकता से अधिक समझकर छोट दिया गया है। १३ वालक्षिाव्याकरणम् गुजराती भाषा के माध्यम से मस्कृत शिक्षण देने का प्रयास जिसमे किया गया हो उस रचना को औक्तिक' कहते है। वान शिक्षाव्याकरण एक ऐसी ही रचना है। इस ओक्तिक ग्रन्य के लेखक श्रीमालवशीय करसिंह के पुत्र ठकुर संग्रामसिंह है। इसका रचनाकाल स० १३३६ है । सम्पूर्ण ग्रन्य का परिमाण १८५० प्रलोक हैं। इसमे मजा, सन्धि, स्यादि, कारक, समास, उत्तिविनान, सस्कार तथा त्यादि नामक मा० प्रक्रम है । प्रन्यकार ने प्रारम्भ मे ही यह प्रतिज्ञा की है कि शर्ववर्मप्रणीत कातन्त्रव्याकरण के आधार पर मक्षेप मे वालशिक्षा की रचना की जा रही है। अपनी निरभिमानिता तथा सरलता का परिचय देते हुए अन्यकार ने यह भी कहा है कि जैसे सूर्य के अभाव मे दीपक के भी प्रकाश का महत्व होता है, वैसे कातन्तव्याकरण के अभाव मे सभी सज्जन इम बालशिक्षा को अपनाएं श्रीमन्नत्वा पर ब्रह्म वालशिक्षा यथाक्रमम् । सक्षेपाद् रचयिष्यामि कातन्त्रात् शावमिकात् ।। १ ।। आदी संज्ञा तत सन्धि स्यादय कारकाणि च ।। समासा चोक्तिविमान सस्कारस्थादयतया ॥२॥ इत्यष्टप्रक्रमोपेतामेता कुर्वन्तु हृद्गृहे । कातन्तभास्कराभावे यथा दीपश्रिय जना ॥ ३ ॥ सप्तम मस्कार प्रक्रम मे अनेक अव्यय तथा तत्कालीन क्रियापदी को उद्धृत कर उनके संस्कृत शब्द दिए है । रखड, पोलइ, आवइ, धूमइ' आदि उद्धृत क्रियापदो को अवधी, वज, राजस्थानी तथा गुजराती भापा की सपत्ति माना जाता है। इस प्रकार यह ग्रन्थ भाषाविज्ञान की दृष्टि से विशेष महत्व का हो गया है । राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से १६६८ ई० मे प्रकाशित इस गन्थ के प्रधान सम्पादक डॉ० फतहसिंह ने इस सस्कारप्रक्रम मे उद्धृत अनेक क्रियापदो को लक्ष्यकर विश्वासपूर्वक यह कहने का प्रयास किया है कि ग्रन्यलेखन के समय तक संस्कृतभाषा केवल विद्वानो की ही सम्पर्क भाषा रह गई थी और जनसाधारण की भाषा सस्कृत से बहुत दूर चली गई थी अत इस दूरी को दूर करने के लिए ही ग्रन्थकार ने सस्कार प्रक्रम मे भापाशब्दो का संस्कृत के साथ मेल बिठाने का प्रयत्न किया। ___ अस्तु, यह तो निश्चित है कि ग्रन्यकार भारतभूमि का एक ऐसा पुनरत्न था जो जन-अर्जन आदि के भेदभाव से ऊपर उठकर राष्ट्रीय दृष्टि से सोच सकता था और वर्तमान भेदबुद्धिविधायिनी प्रवृत्ति के विपरीत एक मात्र राष्ट्रीय दृष्टि से
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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