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________________ १०२ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा ___पांचवे वर्ष मे ही पिता लक्ष्मीधर ने विधिवत् उपनयन सस्कार किया और उन्हे वेद-शास्त्रादि की शिक्षा दी। विश्वेश्वर ने शीघ्र ही विविध विद्याओ मे पारमिता प्राप्त कर ली तथा ३२ वर्ष की आयु से पहले ही इन्होने तकौतूहल, अलकारकौस्तुभ, सिद्धान्तसुधानिधि, रुक्मिणीपरिणय, आर्यासप्तशती एव अलकारकुलप्रदीप जैसे महान् ग्रन्थो की रचना की थी। ३२ वर्ष की आयु मे इनका देहावसान हो गया था "अयं च वार्धक्य एवानपत्यत्वक्लेशप्रतप्रमानसाम्या दम्पतिम्या प्रतप्ततीप्रत५ - प्रसन्नेन यत किलाय सप्तम एव मासि गर्भवासान्निर्गत्य ३२ द्वातिशतोऽन्देश्य प्रागेव परममहनीयान् तर्ककानुहल अलकारकुलप्रभृतीन् नैकग्रन्यान् महनीयान् विरच्य कीतिमात्र शरीरता लेभे इति च किंवदन्ती वदन्ति" (भूमिका, पृ० ३)। ग्रन्थ के आरम्भ मे वाड्मय ब्रह्म को नमस्कार कर मुनिलय तथा पिता लक्ष्मीधर को लोकोत्तर बताते हुए उनकी स्तुति की है । यह भी बताया गया है कि यद्यपि फणिनायक (पतजलि) द्वारा किए गए भाष्य के सम्बन्ध मे अल्पबुद्धिवाला कोई भी व्यक्ति सिद्धान्त निर्धारित करने में समर्थ नही हो सकता, फिर भी भगवान् शङ्कर के प्रसाद से यह कार्य सम्भव हो जाता है विषये फणिनायकस्य मार्ग क्षमते नैन विधातुमल्पमेधा । विवुधाधिपतिप्रसादधारा पुनरारादुपकारमारभन्ते मगलाचरण, श्लोक ५ इस कथन के आधार पर ऐसा कहा जा सकता है कि उन्होने महाभाष्य को आधार मानकर अपनी व्याख्या लिखी है । इस विषय को स्पष्टीकरण भूमिका मे श्रीमाधवशास्त्री ने भी किया है। फिर भी कही-कही भाष्यकार-वातिकार के मतो मे लाधव या गौरव दिखाया गया है। भूमिका मे उth आधार पर इसे प्रकरणग्रन्थ कहा गया है, जिससे ५ अध्यायो पर व्याख्या के न होने पर भी कोई न्यूनता नही कही जा सकती (द्र०- भूमिका, पृ० २)। तृतीय अध्याय के अन्त मे विद्वानो को लक्ष्य कर जो कहा गया है कि इसमे पणित वस्तु पर मनन करते हुए विद्वान् उसमे परिकार करें। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होने ३ अध्यायो पर ही यह व्याख्या लिखी थी। ग्रन्थकार ने अपने अन्य को सशय नष्ट करने वाला तया विद्वानो के कौतूहल को बढाने वाला कहा है। यद्यपि प्रतिज्ञानुसार महाभाष्य के अनेक मत उद्धृत किए गए है फिर भी अनेकन विषय से सबद्ध काशिका, पदमञ्जरी, शब्दकण्टकोद्धार आदि ४० से भी अधिक प्रन्यो तथा २० से भी अधिक ग्रन्थकारो के मतवचन उद्धृत किए गए है। भूमिका-लेखक ने विश्वेश्वर सूरि का जीवनकाल भट्टोजिदीक्षित के अनन्तर तथा उनके पौत्र हरिदीक्षित से पूर्व माना है, क्योकि सिद्धान्तसुधानिधि मे शब्द
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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