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________________ १०० संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा __उपलब्ध होते हैं, जिनमें कुछ तो अद्यावधि अप्रकाशित ही हैं, कुछ प्रकाशित व्याकरणो का भी प्रचार नहीं हो सका । सम्भवत साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से लिखे जाने वाले हरिनामामृत आदि व्याकरण इस श्रेणी मे आते हैं। शाकटायन, जनेन्द्र, हेमचन्द्र आदि प्रमुख जन व्याकरणो का भी सम्प्रति विरल ही प्रयोग होता है। गुस्पद हालदार ने अपने "व्याकरणदर्शनेर इतिहास" (पृ० ४५५-५८) मे व्याकरणो के प्रचार-प्रसार आदि को विशद रूप मे समझाया है। सकृत वाड्मय के दर्शन, साहित्य, आयुर्वेद आदि क्षेत्रो मे तो जैनाचार्यों का कार्ययोग प्रशसनीय रहा ही है, व्याकरण क्षेत्र मे भी उन्होने स्वतन्त्र व्याकरणग्रन्थ तया अनेक टीकाग्रन्थो की रचना कर जो महत्वपूर्ण कार्य किए है वे सस्कृतसाहित्य की निधि के रूप मे सदैव मान्य होते रहेगे। प्रकृत निवन्ध मे पाणिनीय, कातन्त, मारस्वत तथा सिद्धान्त चन्द्रिका नामक ४ जनेतर व्याकरणो ५२ ६५ जनाचार्यो द्वारा प्रणीत टीकापन्यो का परिचय दिया गया है जिनमे १६ टीकाओ पर विशेष अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। विशेष अध्ययन मे किन्ही अन्य टीकाओ के साथ सामान्यतया तुलना नहीं की गई है, केवल ग्रन्य की भापाशैली, विषयपरिचय, रचनाप्रयोजन तथा ग्रन्यगत कुछ मुख्य विशेषताओ को बताया गया है, जिनसे प्रन्यनाम, रचनाप्रयोजन, ग्रन्थकार के ज्ञान तथा श्रम आदि की सार्थकता सिद्ध होती है। उक्त चार व्याकरणो के अतिरिक्त वर्धमानकृत गणरत्नमहोदधि तया उसकी स्वोपजवृत्ति पर भी एक संक्षिप्त अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। यद्यपि यह ग्रन्थ किसी एक निश्चित व्याकरण पर आधारित नहीं है, फिर भी इतना अवश्य है कि वह किसीजन व्याकरण के गणपाठ की भी व्याख्या नही है तथा संस्कृत व्याकरण मे गणपा० का प्रौढ ग्रन्य है । ऐसे टीका ग्रन्थो का परिचय यहाँ नही दिया गया है जिनके अन्यकार असन्दिग्ध रूप मे जैनाचार्य नही थे। सम्भवत इनमें कुछ ऐसे भी अन्यकार होगे जो ग्रन्थ लिखते समय तक जैनधर्मानुयायी नही हो सके हो और इसीलिए उनके नामो के साथ किसी जनीय उपाधि का उल्लेख भी न किया गया हो । प्रस्तुत लघुनिबन्ध मे जिन टीकाओ का विशेष अध्ययन या सामान्य परिचय दिया गया है उन टीकाप्रन्यो तथा टीकाकारो की सूची अन्त मे मलग्न है। पाणिनीय प्रभृति सम्प्रदायो मे राघवमूरि, पेरुसूरि, रामकृष्ण दीक्षितसूरि आदि कुछ अन्य जनाचार्य वानिकभाप्य आदि ग्रन्यो के प्रणेता माने जाते है। उन ग्रन्थो के अनुपलच होने से या विस्तारमय से उनका परिचय यहाँ नही दिया गया है। फातन्त्र सम्प्रदाय मे दुर्गसिंह को एक प्रधान व्याख्याकार के रूप मे मान्यता प्राप्त है, उन वृत्तिटीका-परिमापावृत्ति आदि ग्रन्य भी प्राप्त है, परन्तु जैनाचार्यत्व मे प्रसन प्रमाण न होने से उनकी कृतियों का परिचय नहीं दिया गया है। कोतव के आधार प.. नरंप या विस्तार में बनाए गए वालशिक्षाव्याकरण तथा कातन्नोत्तर
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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