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________________ १८ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा पश्चात् उसके पूर्ववर्तीय य का लोपकर युवजानि प्रयोग बनाने का विधान है, यह एक बहुत क्लिष्ट प्रक्रिया मालूम पडनी है, इसीलिए हेम ने सरलतापूर्वक उक्त प्रयोग की सिद्धि के लिए जाया या जानि ७३।१६४ के द्वारा जाया शब्द को जानि के रूप मे आदिष्ट किया है । तक्षित का यह प्रयोग हेम के सरल अनुशासन का अच्छा परिचायक है। हेम और पाणिनि दोनो ही महान् है। दोनो ने संस्कृत भाषा का श्रेष्ठ व्याकरण लिखा है। हेम मे पाणिनि बहुत पहले हुए हैं। अत इन्हें पाणिनि के शब्दानुशासन के अध्ययन करने का अवसर प्राप्त हुआ। पर हेम ने पाणिनि का पूर्ण अनुकरण नहीं किया है। जहा अनुकरण किया भी है, वहा उसमे मौलिकता का भी समावेश किया है। हेम ने एक नहीं अनेक स्थलो पर पाणिनि की अपेक्षा वैशिष्ट्य दिखलाया है । सरलता के लिए तो हेम प्रसिद्ध है ही। इन्होने आरम्भ मे विकार दिखलाया है। पश्चात् उत्सर्ग और अपवाद के सूत्र लिखे। वास्तव मे हेम ने गन्दानुशासन के क्षेत्र मे बडी समझदारी और वारीकी से काम लिया है। जहा पाणिनि ने वैदिक भापा का अनुशासन दिया है, वहा हेम ने प्राकृत भापा का । दोनो के व्याकरण अष्टाध्याय प्रमाण है । हेम के प्रयोगों के आधार पर से मस्कृत भाषा की प्रवृत्तियो का सुफर इतिहास तैयार किया जा सकता है। शब्द सम्पत्ति की दृष्टि से हेम का भाण्डार अधिक समृद्धशाली है । अपने समय तक की सस्कृत भाषा मे होने वाले नवीन प्रयोगो को भी इन्होने समेट लिया है। अत यह निष्पक्ष कहा जा सकता है कि जिस काम को समस्त पाणिनि तन्त्र के आचार्यों ने मिलकर किया, उसको अकेले हेम ने कर दिखलाया। भाषा की विकसनशील प्रकृति का बहुत ही सुन्दर और मौलिक विश्लेषण इनके आदानुशासन मे उपलब्ध होता है। हेम और पाणिनि के इस तुलनात्मक विवेचन से ऐसा निष्कर्ष निकालना नितान्त भ्रम होगा कि पाणिनि हेम की अपेक्षा हीन है या उनमे कोई वहुत बडी त्रुटि पायी जाती है । सत्य यह है कि पाणिनि ने अपने समय मे शब्दानुशासन का बहुत वडा कार्य किया है। सस्कृत भाषा को व्यवस्थित बनाने मे इनके दिए गए अमूल्य सहयोग को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता है। हेम ने जहा अपनी मौलिक निप्पत्तिया उपस्थित की है, वहा उन्होंने पाणिनि से बहुत कुछ ग्रहण भी किया है। अनेक नियमान स्थलो में उनके ऊपर पाणिनि का ऋण है।' १ विशेष के निद्रव्य--प्राचार्य हेमचन्द्र पोर उनका शब्दानुशामन-एक अध्ययन, अध्याय चार ।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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