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________________ आचार्य हेमचन्द्र और पाणिनि ८६ पाणिनि ने समाहार मे द्विगु समास माना है और उसको 'द्विगो' ४११२१ के द्वारा त्रिलोकी को नित्य स्त्रीलिंग माना है। हेम ने उसके लिए 'द्विगोस्समाहारात्' २१४१२१ सूत्र लिखा है। यहा समाहारात् २०६ जोडने का कोई विशेष नात्पर्य नही मालूम होता। पाणिनि ने वहादिगण पठित शब्दो को स्त्रीलिंग बनाने के लिए वैकल्पिक डीप का विधान किया है। उक्त गण के अन्तर्गत पद्धति श०६ को भी मान लेने पर पद्धति , पद्धती इन दो रूपो की सिद्धि होती है जिसको 'पद्धते '२।४।३३ के द्वारा हेम ने भी स्वीकार किया है। स्त्री प्रत्यय प्रकरण मे आया हुआ 'यूनस्ति' ४१११८७ सूत्र दोनो मे एक है। ___अव्ययीभाव समास के प्रकरण मे पाणिनि की अपेक्षा हेमव्याकरण मे निम्न मौलिक विशेषताए है - (१) पाणिनि ने 'अव्यय विभक्तिसमीपसमृद्धिवृध्यर्थाभावात्ययासम्प्रतिशब्दप्रादुर्भावपश्चाद्यथानुपूर्वर्ययोगपद्यसादृश्यसम्पत्तिसाकल्यान्तवचनेषु' २१११६ सूत्र लिखा है। प्रयोग की प्रक्रिया के अनुसार एक सूत्र रखने मे सगति नही वैठती, क्योकि केवल अव्यय का विभक्ति आदि अर्थों के अतिरिक्त भी समास होना चाहिए, इसके लिए उत्तरकालीन पाणिनीय व्याख्या कारो ने अव्यय का योगविभाग करके काम चलाया है, पर हेम ने अपने व्याकरण को इस झमेले से बचा लिया है। इन्होने ३।२।२१ वा सूत्र 'अव्यम्' पृथक् लिखा है। इसके अतिरिक्त इन्होने एक विशेषता और भी बतलाई है, वह यह है कि इससे द्वारा निष्पन्न समस्त शब्दो का बहुव्रीहि संज्ञा दी है। (२) पाणिनि ने केशा-केशि, मुसला-मसलि, दण्डा-दण्डि इत्यादि शब्दो मे बहुव्रीहि समास माना है। उक्त प्रयोगो मे 'अनेकमन्यपदार्थे' २।२।२४ सूत्र द्वारा बहुव्रीहि समास हो जाने के बाद 'इच् कर्मव्यतिहारे' ४।४।१२७ तथा विदण्ड्या दिभ्यश्च'५।४।१२८ सूत्रो द्वारा इच् प्रत्यय का विधान किया है। किन्तु हेम ने इसके विपरीत उपर्युक्त प्रयोगो मे अव्ययीभाव समास माना है । इस प्रक्रिया के लिए हेम ने 'युद्ध व्ययीभाव ' ३।१।२६ सूत्र की रचना की है। हेम की यह मौलिक विशेषता है कि इन्होने उक्त स्थलो पर अव्ययीभाव का अनुशासन किया (३) पाणिनीय व्याकरण में 'अव्यय विभक्ति' इत्यादि सूत्र मे यथा शब्द आया है । वैयाकरणो ने उसके चार अर्थ किये हैं। (१) योग्यता, (२) वीप्सा, (३) पदार्थान तिवृत्ति और (४) सादृश्य । उपर्युक्त व्याख्या के अनुसार ही पाणिनि का बाद मे आया हुआ सूत्र 'यथा सादृश्ये' २।११७ सगत होता है। उसका अर्थ है यथा २०६ का समास सादृश्य अर्थ से भिन्न अर्थ मे हो । इसका उदाहरण 'यथा हरिस्तथा हर' मे समास को रोकना
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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