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________________ ८४ सस्कृन-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा उकार के वाद औ हो तो दीर्घ ॐकार का विधान किया है। हेम की यह प्रक्रिया भी शब्दशास्त्र के विद्वानो को अधिर्फ रुचिकर और आनन्ददायक है। ___'मुनो' प्रयोग मे पाणिनि ने 'अच्च घे' ७।३।११६ के द्वारा इ को अ और डि को औ किया है, तथा वृद्धि कर देने पर मुनी की सिद्धि की है किन्तु हेम ने ११४११५ के द्वारा डि को डौ किया है जिससे यहा ड का अनुबन्ध होने के कारण मुनि शब्द का इकार स्वय ही हट गया है, अतएव मुनि शब्द के इकार के स्थान पर हेम को अकार करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। ____देवानाम्' मे पाणिनि ने नुट् का आगम किया है, किन्तु हेम ने 'ह्रस्वापरच' ११४१३२ के द्वारा सीधे आम् को नाम कर दिया है । हेम ने पाणिनि के 'स्त्रय' ६।११५३ सूत्र को ज्यो का त्यो 'स्त्रयः ११४१३४ में ले लिया है। इसी तरह 'ह्रस्वस्य गुण' ७।३।१०८ को भी ११४।४१ मे ज्यो का त्यो ले लिया है। पाणिनि ने नपुमक लिंग मे मत रद् प्रयोग की सिद्धि के लिए 'अड्डतारादिम्य पचम्य.' ७।१।२५ सूत्र द्वारा सु और अम् विभक्ति को अद् का विधान किया है और अ का लोप किया है, पर हेम ने सि और अम् को सिर्फ 'द' बनाकर कतर की सिद्धि की है। इससे इन्होने अकार लो५ को बचाकर लाधव प्रदर्शित किया है। ____ पाणिनि ने कुर्वत् शब्द को पुल्लिग मे कुर्वन् बनाने के लिए 'उगिदचा सर्वनामस्थानेऽधातो.' '७।१।७० द्वारा 'तुम्' और 'मयोगान्तस्य लोप' ८१२।२३ द्वारा 'त् के लोप होने का नियमन किया है। हेम ने सीधे 'ऋदुदित' ११४१७० द्वारा 'त्' के स्थान पर 'न्' कर दिया है। ___उशनस् शब्द के सम्बोधन मे रूप सिद्ध करने के लिए कात्यायन ने 'अस्थ सम्वुदो वान नलोप२च वा वाच्य ' वात्तिक लिखा है। इस वात्तिक के सिद्धान्त को हेम ने 'वोगनसोनश्चामन्यसौ' ११४१८० मे रख दिया है। पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती अनेक वैयाकरणो का नाम लिया है, कही-कही ये नाम मात्र प्रशसा के लिए ही आते हैं, किन्तु अधिकतर वहा उनसे सिद्धान्त का प्रतिपादन ही किया जाता है। जहा सिद्धान्त का प्रतिपादन रहता है, वहा स्वयमेव विकल्पार्थ हो जाता है । हेम न अपनी अष्टाध्यायी मे पूर्ववर्ती आचार्यों का नाम नही लिया है। विकल्प विधान करने के लिए प्राय 'वा' शब्द का ही प्रयोग किया है। ___ युष्मद् और अस्मद् शब्दो के विविध रूपो की सिद्धि के लिए हेम ने अपने सूत्रो मे तत्द्र पो को ही सकलित कर दिया है, जव कि पाणिनि ने इन रूपो को प्रक्रिया द्वारा सिद्ध किया है। ३६ शब्द के पुल्लिंग और स्त्रीलिंग के एकवचन मे रूप बनाने के लिए पाणिनि के अलग नियम हैं। उन्होने 'इदमो म. ७१२।१०८ के द्वारा म विधान और 'इदोऽयपुसि' ७।२१११ के द्वारा इद को अय विधान किया है। स्त्रीलिंग मे 'इयम्'
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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