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________________ ८२ स'कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा का वैकल्पिक लोप होता है, को निहित किया है। इससे अवगत होता है कि हेम ने पाणिनीय तन्त्र का अवगाहनकर उनकी समस्त विशेषताओ को अपने शब्दानुशासन मे स्थान दिया है तथा अपनी सूक्ष्म प्रतिभा द्वारा सरलीकरण और लघ्वीकरण की ओर भी ध्यान दिया। हेम ने 'सम्राट' १।३।१६ सूत्र मे सम्राट र लिखकर सम्राट की मिद्धि मान ली है जवकि पाणिनि ने ८।३१२५ सूत्र में इसकी प्रक्रिया भी प्रदर्शित की है। हेम ने ११३१२२ सूत्र मे स का लुक कर दिया है। पाणिनि ८।३।१७ के द्वारा स को य बनाकर ८।३.२२ सूत्र मे लो५ किया है । हेम का लाधव यहा नितान्त वैज्ञानिक है। हेम ने १।३।३५ मे अस्पष्ट और ईपरस्पष्टतर मे व और य का विधान किया है। पाणिनि ने ८।३।१८ मे इन्हे लघुप्रयत्न कहा है। हेम ने ११३१२८ मे छ को द्वित्व किया है, जबकि पाणिनि ने ६।११७५ द्वारा तुक का आगम किया है, ५०चात् त् को च किया है। तुलना करने से ज्ञात होता है कि पाणिनि की अपेक्षा हेम का यह अनुगासन सरल होने के साथ वैज्ञानिक भी है, क्योकि हेम छ को द्वित्व कर पूर्व छ को च कर देते हैं । पाणिनि तुक् आगम कर त् को च् बनाते हैं, इसमे प्रक्रिया गौरव अवश्य है। पाणिनि का मूत्र है 'आइमाडोरच' ६।१।७४ । इसके द्वारा तुक किया जाता है, किन्तु हेम ने १।३।२८ के अनुसार आ, मा को छोडकर २५ दीर्घ पदान्त शब्दो से विकल्प से छ का विधान किया है। किन्तु वृद्धि के अनुसार आ भा के पास छ का होना नित्य सिद्ध होता है, पर यह सत्य है कि उक्त सूत्र के अनुसार कथन मे स्पष्टता नही आने पाई है। हेम ने तच्शेते, तशेते मे 'त शिट' १३१३६ द्वारा श को द्वित्व किया है, जो हेम की मौलिकता का द्योतक है। हम ने विसर्ग सन्धि का निरूपण पृयक नही किया है, बल्कि उसे रेफ कहकर व्यजन सन्धि मे ही स्थान दिया है। हेम ने 'रो रे लुम् दीर्घश्चादिदुत' ८।३।४१ इस एक ही सूत्र मे 'रो रि' ८।३।१४ तथा 'लोपे पूर्वस्य दीर्घोऽ' ६।३।१११ पाणिनि के इन दोनो सूत्रो के कार्यविधान को एक साथ रख दिया है। हेम ने ट्याधस्य द्वितीयो वा' १।३।५६ सूत्र में एक नया निधान किया है। बताया गया है कि श, प, स के ५२ वर्ग के प्रयम अक्षर का द्वितीय अक्षर होता हैं, जेसे क्षीरम्, स्पीरम्, अप्सरा , अफ्सरा आदि । भाषाविज्ञान की दृष्टि से हेम का यह अनुशासन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। ऐसा लगता है कि पाणिनि की अपेक्षा हेम के समय मे स्कूल भाषा की प्रवृत्तिया लोकभाषा के अधिक निकट आ रही थी। इसी कारण हेम का उक्त अनुशासन सभी सस्कृत वैयाकरणो की अपेक्षा नया है। यह सत्य है कि हेम को अपने समय की भाषा का यथार्थ ज्ञान था। उसकी समस्त प्रवृत्तियो की उन्हे जानकारी थी। इसी कारण उन्होने अपने अनु
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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