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________________ ८० सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा सज्ञा के कथन मे हेम की कोई विशेषता नहीं है, बल्कि पाणिनि का अनुकरण ही प्रतीत होता है । हा, सवर्णसज्ञा के स्थान पर हेम ने स्वसजा नामकरण कर दिया है । दोनो ही गब्दानुगासको का एक सा ही भाव है। हम और पाणिनि की सजाओ मे एक मौलिक अन्तर यह है कि हेम प्रत्याहार के झमेले मे नही पडे है, उनकी सज्ञाओ ने प्रत्याहारो का बिल्कुल अभाव है। वर्णमाला के वर्णो को लेकर ही हेम ने सज्ञाविधान किया है। पाणिनि ने प्रत्याहारो द्वारा सज्ञाओ का निरूपण किया है जिससे प्रत्याहारक्रम का स्मरण किए विना मज्ञाओ का अर्थबोध नही हो सकता है । अत हेम के सनाविधान मे सरलता पर पूर्ण ध्यान रखा गया है। पाणिनि ने अनुरवार, विसर्ग, जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय को व्यजनविकार कहा है। वास्तव मे अनुस्वार मकार या नकारजन्य है। विसर्ग सकार या कही रेफजन्य होता है। जिवामूलीय और उपध्मानीय दोनो क्रम. क, ख तथा प, फ के पूर्व स्थित विसर्ग के ही विकृत रूप हैं। पाणिनि ने उक्त अनुस्वार आदि को अपने प्रत्याहार सूत्रो मे - वर्णमाला में, स्वतन्त्र रूप से कोई स्थान नही दिया है। उत्तरकालीन पाणिनीय वैयाकरणो ने इसकी बडी जोरदार चर्चा की है कि इन वर्गों को स्वरो के अन्तर्गत माना जाए अथवा व्यजनो के । पाणिनीय शास्त्र के उद्भट विद्वान् कात्यायन ने इसका निर्णय किया कि इनकी गणना दोनो मे करना उपयुक्त होगा । पाणिनीय तत्ववेत्ता पतजलि ने भी इसका पूर्ण समर्थन किया है। हेम के अनुस्वार, विसर्ग, जिनामूलीय और उपध्मानीय को 'अ अ कप पा. शिट्' १।१।१६ मूत्र द्वारा शिट् सज्ञक माना है। इससे स्पष्ट है कि हेम ने अपने गन्दानुशासन मे विसर्ग, अनुस्वार, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय को व्यजनो मे स्थान दिया है। हेम की शिट् सज्ञा व्यजनवर्णो की है तथा व्यजन वर्णों की सज्ञाओ मे हेम ने उक्त विसर्गादि को स्थान दिया है। कायन व्याकरण मे भी अनुम्वार, विसर्ग, जिवामूलीय और उपध्मानीय को व्यंजनो के अन्तर्गत माना है । ऐसा लगता है कि हम इस स्थल पर पाणिनि की पेक्षा जाकटायन से ज्यादा प्रभावित हैं। हेम का अनुस्वार, विमर्ग आदि का व्यजनो मे स्थान देना अधिक तर्कसंगत जचता है। उपयुक्त विवेचन के आधार पर हम सक्षेप मे इतना ही कह सकते हैं कि हम ने अपनी आवश्यकता के अनुसार सज्ञाओ का विधान किया है। जहा पाणिनि के निरूपण मे क्लिष्टता है वहा हेम मे सरलता और व्यावहारिकता पाणिनि ने जिसे अच सन्वि कहा है हेम ने उसे स्वर सन्धि । हेम ने गुण सन्धि मे ऋो म्यान ५२ अर् और ल के म्यान पर अल् किया है। पाणिनि को इसी कार्य की मिद्धि के लिए पृथक् 'उरण रपर' ११११५१ मूत्र लिग्वना पड़ा है।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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