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________________ हिसा के प्रति खुला विद्रोह : ३ उन्होंने अपनी गम्भीर भाषा से कहा-"हिंसा तीन काल मे भी धर्म नहीं हो सकती । ससार के सब प्राणी,-फिर चाहे वे छोटे हो या बडे, मनुष्य हो या पशु-जोना चाहते है। मरना कोई भी नही चाहता । सब को सुख प्रिय लगता है और दुःख अप्रिय । मर को अपना जीवन प्यारा है। अतः किसी के प्राणो को लूटना, उसके जीवन के साथ खिलवाड़ करना, कथमपि धर्म नहीं हो सकता। प्राण-रक्षा धर्म हो सकता है, प्राण-हरण नहीं । क्योंकि अहिंसा, सयम और तप यही धर्म है । जिस हिसक व्यापार को तुम अपने लिए पसन्द नहीं करते, उसे दूसरा भी पसन्द नहीं करता, और जिस दयामय व्यवहार को तुम पसन्द करते हो, उसे सब ही पसन्द करत है-जिन-शासन का यही निचोड़ है। यज्ञो मे धर्म के नाम पर अलि देना घोर पाप है। यह तो सीधी नरक की राह है। १-"सन्चे जीवा वि इच्छति, जीविडं न मरिजिड । -दशवैकालिक ६/११ २-"सचे जीवा सुहसाया दुक्खपडिकूला ससि जीविय पिय --आचारांग २/३/८१ ३--"धम्मो मगलमुक्कि', अहिंसा संजमो तवो।" दशवकालिक १/१ ४- इच्छसि अप्पणतो, ज च न इच्छसि अप्पणतो । त इच्छ परस्स वि मा, एत्तियग्गं जिणासासणयं ॥ -बृहत्कल्प
SR No.010480
Book TitleSanmati Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSureshmuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages47
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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