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________________ १२] संक्षिप्त जैन इतिहास | उपस्वका (Indus Valley) से उप हुई मुद्राओं पर केवल बैठी हुई मूर्तियां ही ध्यानम्श्न अनि हैं, इतना ही नहीं, बल्कि उनपर कायोत्सर्ग बासन में खड़ी हुई ध्यानमश्न बाकृतियां भी अंकित हैं। अतः यह स्पष्ट है कि उस प्राचीनका हमें सिंधु उपत्यकामें योगचर्या प्रचलित थी । कर्जन म्युजियम मथुग में कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित तीर्थङ्कर ऋषभकी एक मूर्ति है। उसका सादृश्य मधुकी मुद्राओं पर अंकित कायोत्सर्गस्थितिकी आकृतियोंसे है। ऋका भाव चैलते है और तीर्थंकर ऋषभका चिन्ह बैल ही है। अतः नं ३ से ५ तककी सिन्धुमुद्राओं पर जो आकृतियां अंकित है वे ऋकी ही पूर्वरूर हैं। ' सिन्धु-मुद्राओं (Indus Seals) पर अङ्कन नम कार्योत्सर्ग भाकृतियोंमें ही जैन मूर्तियोका मान्य हो, केवल यह बात ही नहीं है, बल्कि मोडन जो-दो और ऐसी मूर्तियां भी मिली हैं, जिसकी कोई भी विद्वन निःपड जेन मूर्तियां कहता है; परंतु विद्वज्जन उन्हें जैन बहने से इसलिये हिचकते हैं कि वे ई०पू० आठव शताब्दिसे पहले जैन धर्मका अस्तित्व ही नहीं मानते। किंतु उनकी यह मान्यता निराधार है। भारतीय साहित्य तो ऋषभदेवको ही जैनधर्मका संस्थापक मानता है. जो राम और रणसे भी बहुत पहले हुए 1 थे । मोहन जोदड़ो के ऐश्वर्यकाल में बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि roar नेमिनाथका तीर्यकाल चल रहा था । अतः वहांके लोगों में जैनधर्मकी मान्यता होना स्वाभाविक है। काठियावाहसे उपलब्ध एक रात्रमें स्व० प्रो० प्राणनाथने पढ़ा कि सुमेर नृपने बुशदनंबर प्रथम मॉडर्न रिव्यू आगस्त १९३२, पृष्ट १५६-१५९ د
SR No.010479
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages171
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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