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________________ ( ४ ) और यह ७वां ग्रन्थ संक्षिप्त जैन इतिहास तृतीय भाग - प्रथम खंड ( वा० कामताप्रसादजी कृत ) प्रकट किया जाता है जो 'दिगंबर जैन' पत्रके ३० वे वर्षके ग्राहकोंको मेट बांटा जा रहा है तथा जो 'दिगंबर जैन' के ग्राहक नहीं हैं उनके लिये कुछ प्रतियां विक्रयार्थ भी निकाली गई हैं। माशा है कि बहुत खोज व परिश्रमपूर्वक तैयार किये गये ऐसे ऐतिहासिक ग्रन्थोंका जैन समाजमे शीघ्र ही प्रचार होजायगा। इस ऐतिहासिक प्रत्यके लेखक बा० कामताप्रसादजीका दि० जैन समाजपर अनन्य उपकार है, जो वर्षोंसे मतीय श्रमपूर्वक प्राचीन जैन साहित्यको खोजपूर्वक प्रकाशमें रहे है । यदि जैन समाज के श्रीमान् शास्त्रदानका महत्व समझें तो ऐसी कई स्मारक ग्रन्थमालायें निकल सकती हैं और हजारों तो क्या लाखों ग्रन्थ भेट स्वरूप या लागत मूल्यसे प्रकट होसकते हैं, जिसके लिये सिर्फ दानकी दिशा ही बदलने की आवश्यक्ता है। जब द्रव्यका उपयोग मंदिरोंमें उपकरण आदि बनवाने में या प्रभावना बंटवाने में करने की आवश्यक्ता नहीं है लेकिन द्रव्यका उपयोग विद्यादान और शास्त्रदान में ही करने की आवश्यक्ता है । सूरत वीर सं० २४६३ वाश्विन वदी ३ निवेदक मूलचन्द किसनदास कापडिया, प्रकाशक । FRS
SR No.010475
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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