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________________ २४०] संक्षिप्त जैन इतिहास । महावीरजीके नन्म होनेके पहिले दी बालग वर्गकी प्रधानता थी। उसने शेप वर्णो के सब ही अधिधार हथिया लिये थे । अपनेको पुजवाना और अपना बर्थमापन करना उसका मुख्य ध्येय था। यही कारण था कि उस समय बामणोडे मतिरिक्त किसीको भी धर्मकार्य और वेदपाठ करनेकी माजा नहीं थी। वाह्मणेतर वर्णोके लोग नीचे समझे जाते थे। शूद्र और सियोको मनुष्य ही नहीं समझा जाता था। किन्तु इस दशासे लोग ऊब चले-उन्हें मनुप्योंमें पारस्परिक ऊच नीचा भेद अखर उठा । उधर इतने में ही भगवान पार्श्वनाथका धर्मोपदेश हुमा और उपसे जनता अच्छी तरह समझ गई कि मनुष्य मनुप्पमें प्राकृत कोई भेद नहीं है। प्रत्येक मनुष्यको आत्म स्वातत्र्य प्राप्त है। कितने ही मत प्रर्वतक इन्हीं बातोंका प्रचार करने के लिये अगाडी आगये। मैनी लोग इस आन्दोलनमें अग्रसर थे। साधुओंकी बात नाने दीजिये, श्रावक तक लोगोसे जातिमूदता अथवा जाति या कुलमदको दूर करने के साधु प्रयत्न करते थे। रास्ता चलते एक श्रावका समागम एक ब्राह्मणसे होगया । ब्राह्मण अपने जातिमदमें मत्त थे; किन्तु श्रावकके युक्तिपूर्ण वच• नोंसे उनका यह नशा काफूर होगया। वह जान गये कि "मनुष्यके शरीरमें वर्ण आकृतिके भेद देखनेमें नहीं पाते हैं, जिससे वर्णभेद हो; क्योंकि ब्राह्मण आदिका शूदादिके साथ भी गर्भाधान देखने में माता है। असे गौ. घोड़े आदिकी जातिका मेद पशुओंमें है, ऐसा जातिभेद मनुष्योमें नहीं है, क्योंकि यदि भाकारमेद होता तो १-मम० पृ. ४७-५६ । २-ममबु० पृ० १५-१७ ।
SR No.010473
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 02 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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