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________________ अन्य राजा और जैन संघ। [७३ करते है कि 'अकलंकसे पहलेके साहित्यमे इन चार प्रकारके संधोंका कोई उल्लेख भी अभीतक देखनेमें नहीं आया, जिससे इस (शि० नं० १०८ के ) कथनके सत्य होनेकी बहुत कुछ सम्भावना पाई जानी है। संभव है मुग्न्तार सा०का यह अनुमान ठीक होः कितु कुशानकालके कौगाचीवाले लेखमे एक आचार्यका नाम शिवनंदि है और यह 'नंदि विशेषण युक्त है। वेताम्बर संप्रदायमे भी इसी समयके लगभग अर्थात् वीर निर्वाणाळसे ५८२ वर्ष वाढ (१) नागिन्द्र, (२) चंद्र, (३) निर्वृनि और (४) विद्याधर नामक चार शाखाय प्रगट हुई थीं, जिनमे ही उपरान्त ८४ गच्छ निकले थे।' अतएव अर्हद्वलि आचार्यके समयमे ही दिगम्बर जैन संघ चार भागोंमें विभक्त हुआ हो तो कोई आश्चर्य नहीं ! अर्हद्वलिको श्री गुप्तिगुप्ति और विशाखाचार्य भी कहते है-श्री अर्हद्वलि, माघनदि, धरसेन, पुप्पडन्त और भृतवलि, ये सब प्रायः एक ही समयके विद्वान् प्रतीत होते हैं। बलात्कारगणकी उत्पत्तिके विषयमें कुछ ज्ञात नहीं है । डॉ० हॉर्णल अनुमान करने हैं कि अर्हद्वलिके नाम अपेक्षा ही इस गणकी उत्पत्ति हुई है। नंदिगण, देशीगण और बलात्कारगण परस्पर अमिन्न है। गणभेद जैन संघमे भगवान महावीरजीके समयसे १-श्रा०, जीवनी पृ० १८१ । २-संप्राजैस्मा० पृ० २५ । ३-जैसा स०, भा० १, वीर वंशावलि, पृ० १५ । ४-रश्रा०, जीवनी, पृ० १८७ । ५-इऐ०, भा० २०, पृ० ३४२ । ६-जैशि० सं०, भूमिका पृ० १४६।
SR No.010472
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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