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________________ अन्य राजा और जैन संघ। [७१ गुरुने शिवभृतिका कम्बलने विशेष मोह देखा तो उसे फाडकर फेंक दिया । शिवभूति नाराज होगया और नग्न रहने लगा। इसके दो. शिप्य कौन्डिन्य और कट्टवीर हुये । इसकी बहिन उत्तराने भी साधु होना चाहा. परन्तु स्त्रीके लिये नम रहना असंभव जानकर शिवभूतिने उसे साधु दीक्षा नहीं दी और घोपणा करदी कि कोई जीवा स्री भवसे मोक्ष नहीं जासकता ! वतावरोंकी इस कथामे कुछ भी ऐतिहासिक तथ्य नहीं है; क्योंकि बौद्ध ग्रन्थोंके आधारसे सिद्ध किया जा चुका है कि जैन मुनियोका प्राचीन भेष नम (दिगंबर) था और यह बात स्वयं श्वतावरोंके आर्य महागिरि विषयक उपरोक्त. कथनसे भी स्पष्ट है । अतएव इस कथामे केवल इतनी बात तथ्यपूर्ण है कि जैन संघमें दिगम्बर और खेतांबर भंद इस समय पूर्ण प्रगट होगया था । दिगंबर संप्रदायकी मान्यताके अनुसार हम देख चुके है कि सम्राट् खारवेलके पश्चात् नक्षत्र आदि आचार्य दि० जैन संघ व ग्यारह अंगके धारी हुये थे। इनके बाद उसके प्रभेद। सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोह ये चार आचार्य आचाराङ्गके धारक हुए । शेष कुछ आचार्य ग्यारह अंग चौदह पूर्वके एक अंशके ज्ञाता थे और ये सब ११८ वर्षमें हुऐ थे। इस प्रकार भगवान् महावीरजीके निर्वाण उपरांत ६८३ वर्षमें द्वादशांग वाणीका ज्ञान करीब २ बिलकुल लुप्त होगया; अर्थात् सन् १३८ में अंग पूर्वोका ज्ञान आंशिकरूपमें 'शेष रहा था। इस समयसे किचित् पहले श्री धरसेनाचार्य हुये थे १-तिल्लोयपण्णत्ति, गा०८०-८२, जैहि० भा० १३ पृ० ५३२।
SR No.010472
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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