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________________ ४४] संक्षिप्त जैन इतिहास । प्रना हित और धर्म सबधी अनेक सुकार्य करते थे और मंदिर आदि बनवाते थे । इस वातका स्पष्ट प्रतिघोप उन्होंने अपने लेखके प्रारंभ (पक्ति २ ) मे कर दिया है। उनके राज्यकालमे कलिङ्गकी धनसंपदा भी खूब बढी थी , क्योकि समग्र भारतमे उन्होंने बहुमूल्य सम्पत्ति इकट्ठी की थी। इस समृद्धिशाली ढगामे कलिङ्ग अवश्य ही रामराज्यका उपभोग कर रहा था और उसके आनन्दकी मीमाका वारापार न था । उसका प्रताप समस्त भारतवर्षमे न्याप्त था। खारवेलने प्रजाके मन बहलायके लिये संगीत और बाजेगाजेका भी प्रबन्ध किया था। यद्यपि खारवल जैन थे, परन्तु उन्होंने जैनेतर धर्मोका आदर किया था। उनका व्यवहार अन्य पापण्डोंके प्रति उदार था और यह राजनिनिकी दृष्टिसे उनके लिये उचित ही था । इस ओर उन्होने कुछ अगोंमे अगोकका अनुकरण किया था। अतएव इन सब बातोको देखने हुये सम्राट खारवेल एक महान् प्रजावत्सल और कर्तव्यपरायण गजा प्रमाणित होने है। शिलालेखमे खारवेलको ऐल महाराज, महामेघवाहन चेति राजवंशवर्द्धन खारवेल श्री-(क्षारवेल) लिखा है तथा उनका उल्लेख 'क्षेमराज, वद्धराज, भिक्षुराज और धर्मराज' रूपमे भी हुआ है। अन्तिम उल्लेखसे खारवेलके सुकृत्योंका खासा पता चलता है। उन्होंने प्रजामे, देशमे और समग्र भारतमे क्षेमकी स्थापना की. इसलिये वह क्षेमगज थे। साम्राज्य एवं धर्म-मार्गकी उन्होने वृद्धि की इस कारण उनको वर्द्धराज मानना भी ठीक है। भिक्षुओ-श्रमणोंके लिये उन्होंने धर्मवृद्धि करनेके साधन जुटा दिये, इस अवस्थामे उनका 'भिक्षुराज' रूपमे उल्लेख होना कुछ अनुचित नहीं है। अन्तत वर्मराज तो वह
SR No.010472
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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