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________________ १८] संक्षिप्त जैन इतिहास । चनवाई थी। इनके अतिरिक्त भग्नावशेषोंमे अङ्कित चित्रों जैसे-राजछत्र लगाये किसी राजाको जैन मावुका उपदेश देना, नागकुमारों (शकों) का विनीत भावमे उपदेश श्रवण करना अथवा पूजा करना इत्यादिसे जनताके साधारण और विशेष मनुष्यों तथा विदेगियोंके मध्य जैन 'धर्मकी मान्यता होनेका परिचय मिलता है | "जम्बुकुमार चरित" से वहा पाचसौमे अधिक स्तूपोंका होना प्रगट है।' उस समय भी जैनधर्म अपने विगाल रूपको धारण किये हुये था। जिन विदेशियोको घृणाकी दृष्टिसे जैनधर्मका विशालरूप । हिन्दू लोग देखते थे, उनको वौद्ध और जैनाचार्योंने अपने २ मतमें दीक्षित किया था। उपरान्त इन दोनों धर्मोकी देखादेखी ब्राह्मणोंने भो अपने मतका प्रचार इन विदेशियोंमे किया था । जैन शास्त्रोंमें सर्व प्रकारके मनु- . प्योंके लिये धर्म साधन करनेका विधान मौजूद है। म्लेच्छ भी यथावसर आर्य होजाता है और वह मुनि होकर मोक्ष लाभ करता है। मथुराके पुरातत्वसे जैनधर्मकी इस विशालताका पता चलता है। विदेशी शक आदि लोग जैनधर्मयुक्त हुए थे और नट, वेश्या आदि जातियोंके लोग भी अर्हत भगवानकी पूजाके लिये जिनमंदिर आदि निर्मित कराकर धर्मोपार्जन करते थे। इन मंदिरादि विविध व्यक्तियोंका दान कहा गया है। १-विशेषके लिये देखो "वीर" वर्ष ४ पृ० २९४-३११. २-अनेकान्त १ पृ० १४०. ३-लब्धिसार गाथा १९५ वेंकी टीका २७१ व विशाल जैन सब नामक हमाग ट्रेक्ट देखो। ४ वीर वर्ष ४ पृ० ३११.
SR No.010472
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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