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________________ १२८] संक्षिप्त जैन इतिहास । राजाको भी इसने परास्त किया था। महोवाके चंदेलराजा मदनवर्माने इससे सन्धि करली थी। श्वेताम्बर जैनाचार्य हेमचन्द्रने इसी समय 'सिद्धी व्याकरण और द्वाश्रय द्राव्य लिखा था।' राजा सिद्धराजने एक बाद सभा भी कराई थी। करणटक देशसे कुमुढचंद्र नामक एक दिगम्बर जैनाचार्य अहमदाबाद आये थे। श्वेताम्बराचार्य देवसूरि तब वहा 'अरीष्टनेमिके जैनमंदिरमे थे। किन्तु इन्होंने वहा शास्त्रार्थ करवा मंजूर नहीं किया । दिगम्बराचार्य नमावस्थामे ही पाटन पहुंचे । सिद्धराजने उनका बडा आदर किया। हेमचंद्राचार्य वाढ करनेको राजी न हुये। इस कारण देवरिमे वाढ हुआ । सभामे कुमुदचंद्रने कहा कि कोई स्त्री मुक्ति नहीं पा सकी । सिद्धराजने इससे महाराणीका अपमान हुआ समझा । उवर सवस्त्र साधु दशासे मोक्षनिषेध करनेके कारण राजमंत्री भी रुष्ट हो गये । सभामे हुल्लड मचगया और कुमुदचंद्रको पराजित तथा उनके प्रतिपक्षी देवसूरिको विजयी ठहरा दिया गया। देवसूरिको अजितसरि भी कहा गया है और यह 'लाद्वाद-रत्नाकर' नानक ग्रंथके कर्ता थे।४ सिद्धराजके एक मंत्री आलिग नामक भी था। उसने वि० सं० ११९८मे एक जैन मंदिर निर्मापित कराया था और उसका नाम 'राजविहार' रक्खा था। उसके मित्र सज्जन जूनागढ़के शासक जैन धर्मानुयायी थे। सिद्धराजने 'आनन्दसूरि और उनके सहभ्राता १-हिवि०, भा० ७ पृ० ५९४ । २-वप्राज॑म्मा०, पृ० २०७। ३-हिवि०, भा० ५ पृ० १०५ व बप्राजेस्मा०, पृ० २०७-२०८ । ४-डिजेबा० भाग १ पृ० ३१ ।
SR No.010472
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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