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________________ १००] संक्षिप्त जैन इतिहास । रनंदि, लोकचंद्र प्रथम, प्रभाचंद्र प्रथम, नेमिचंद्र प्रथम, भानुनंदि, जयनन्दि (सिहनन्दि ), वसुनन्दि, वीरनन्दि. रतनन्दि, इस समयके लगभग हुये थे। इन आचार्योंका केन्दस्थान उज्जैनके निकट भद्दलपुर था । कितु एक ' गुर्वावलि ' मे श्री लोहाचार्य दूसरेके उपरात पूर्वका पट्ट और उत्तरका पट्ट इस तरह दो पट्ट स्थापित हुये बताये गये है। और दक्षिण भारतमे मान्यता है कि इस समय चार पट्ट स्थापित हुये थे, जिनमे दो दक्षिण भारतमे थे. एक कोल्हापुरमे था और एक दिल्लीमे । इन पट्टावलियोंमे परस्पर और इतिहास विरुद्ध इतना कथन है कि इनकी सव ही बातोंको ज्योंका त्यों स्वीकार करलेना कठिन है।" जो हो, यह स्पष्ट है कि गुप्त साम्राज्य कालमे जैनधर्मकी उन्नति विशेष थी। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्यकी राजधानी उज्जैन जैन धर्मका केन्द्र अब भी थी। रजनंदिके पाचवे पट्टधर महाकीर्ति भद्दलपुरसे उज्जैन आगये थे। यह सव आचार्य निग्रंथ मुनिवत् रहते थे । गुप्त कालके विद्वानों जैसे अमरसिंह, वराहमिहिर, आदिने भी अपने ग्रंथोंमें जैनोंका उल्लेख किया है । इससे भी उस समय जैनधर्मका उन्नत रूपमे होना प्रगट है । प्राचीन कालसे मथुरा, उज्जैन, गिरिनगर, कांचीपुर, पटना आदि नगर जैनोंके केन्द्रस्थान रहे है । गुप्तकालमें भी उनको वही महत्व प्राप्त था। १-जैहि० भा० ६ अक ७-८ पृ० २९ व इऐ० भा० २० पृ० ३५१ । २-इऐ० भा० २० पृ० ३५२ । ३-जैहि० भा० ६ अक ७-८ पृ० २३ । ४-जैग० भा० २२ पृ० ३७ । ५-रश्रा०, जीवनी, पृ०११४-१९६।६-ईऐ० भा० २० पृ० ३५२।
SR No.010472
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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