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________________ VAAR ज्ञात्रिक क्षत्री..और भगवान महावीर। [६५ 'श्वेताम्बराचार्य ने इस कथाने गोशालको खूब हीनाचारी , प्रगट करनेका प्रयत्न किया है जिसमें वह सिद्धान्त विरोधको भी भूल गये हैं । अतः उनके कथनमें ऐतिहासिक तत्व प्रायः नहीं के बराबर है। जब छमस्थ दशामें गोशालका भगवानका शिष्य होना ही बाधित है, तब शेष :कथाको महत्व देना जरा कठिन है। दिगम्बर जैन संप्रदायके शास्त्र ‘भगवती के उपरोक्त गावर मालमें कथनसे सहमत नहीं हैं। उनमें लिखा है 'गोशालका उल्लेख । कि मक्खलोगोशाल भगवान पार्श्वनाथनीकी शिष्यपरंपराके एक मुनि थे; परन्तु जिस समय भगवान महावीरके ममवशरणमें उनकी नियुक्ति गणधरपद पर नहीं हुई, तो वह रुष्ट होर श्रावस्तीमें भाकर आजीविक संप्रदायके नेता बन गए थे। और अपनेको तीर्थकर प्रतियोपित करके यह उपदेश देने लगे थे कि ज्ञानसे मोक्ष नहीं होता; अज्ञानसे ही मोक्ष होता है । देव या ईश्वर कोई ही नहीं। इसलिए स्वेच्छापूर्वक शून्यका ध्यान ही करना चाहिये। • देवसेनाचार्यके ( १०वीं शताब्दी) 'दर्शनसार' और 'भावअन्यश्रोतोंसे दिगम्दर संग्रह ' नामक ग्रन्थोंमें यह वर्णन विशेष शास्त्रोंका समर्थन, रीतिसे है । श्री नेमिचन्द्राचार्यके 'गोमट्टगोशाल पार्श्वनाथकी सार' में भी गोशालकी गणना अज्ञानमतमें परपराका शिष्य । की गई है। यही बात श्वेताम्बरोंके 'सुत्रकृतांग' ग्रंथमें लिखी हुई है। बौद्धोंके समक्ष फलमूत्त में भी गोशालकी इस अज्ञानमतरूप मान्यताका उल्लेख मिलता है। वहां गोशालको यह मत प्रगट करते हुए लिखा है कि 'अज्ञानी और ज्ञानी ११-भमवु० पृ० २०। २-सूत्रकृतांग २१॥३४५।
SR No.010471
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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