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________________ २८२] संक्षिप्त जैन इतिहास । अशोक यह अन्यत्र पगट कर चुके हैं कि वह प्रत्येक धर्मावल. म्बीको अपने ही धर्मका पूर्ण आदर करना उचित समझते हैं। इसके अतिरिक्त उस लेखमें कोई भी ऐसी बात या उपदेश नहीं है जिससे बौद्धधर्मका प्रतिभास हो । तिसपर इस लेखके साथ ही उपरोक्त रूपनाथका शिलालेख लिखा गया था। इन दोनों शिकालेखों में पारस्परिक भेद भी दृष्टव्य है । रूपनाथ वाले शिलालेखमें कुछ भी बौद्धधर्म विषयक नहीं है। यह बात मि० हेरस भी प्रकट करते हैं। यह भी कहा जाता है कि अशोकने अपनी प्रथम धर्मयात्रा में कई बौद्ध तीर्थोके दर्शन किये थे। किन्तु आठवें शिलालेखमें प्रयुक्त हुये 'सम्बोधि' शब्दसे जो म० बुद्ध के 'ज्ञानप्राप्तिके स्थान (बोधिवृक्ष) का मतलब लिया जाता है, वह ठीक नहीं है। यहां सम्बोधिसे भाव 'सम्यक्ज्ञान प्राप्त कर लेनेसे' है । जैन शास्त्रोंमें 'बोषि' का पालेना ही धर्माराधनमें मुख्य माना गया है। अशो. कके यह 'बोधिलाभ' उनके राज्याभिषेक के बाद दश वर्षमें हुमा था। हां, अपने राज्यप्राप्तिसे बीसवें वर्षमें मशोक अवश्य म० बुद्धके जन्मस्थान लुम्बिनिवनमें गये थे और वहां उनने पूजा-अर्चा की थी और उस ग्रामवासियोंसे कर लेना छोड़ दिया था। इसके पहिले अपने राज्यके १४वें वर्षमें वह बुद्धको नाकमन (कनकमुनि) . १-जमीयो० भा० १७ पृ. २७४-२७५ । २--इंऐ०, १९१३, पृ० १५९ । ३-अध० पृ• १९७ । ४-सेयं भवमय महणी नोधी गुणवित्यज मगे लदा । जदि पडिदा महु सुलहा तदा ण समं पमादो मे ॥७५८॥-मूलाचार• । ५-अध० पृ०३८३-कम्मिन देई स्तम्भ लेख..।
SR No.010471
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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