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________________ २७४] संक्षिप्त जैन इतिहास। करने का अधिकार देकर ब्राह्मणोंकी इप्स मान्यताको नष्टप्राय कर दिया था। उपरोक्त पांचों बातोंका श्रद्धान रखने और तद्वत प्रयन करनेसे उनने यहां सत्य धर्मका सिक्का जमा दिया था। उनसे कई सौ वर्षों पहलेसे जो मनुष्य (अर्थात् ब्राह्मण) यहां सच्चे माने जाते थे, वे अपने देवताओं सहित झूठे सिद्ध कर दिये गये। यह वह स्वयं बतलाते हैं। (६) धर्मका पालन पूर्ण और आंशिकरूपमें किया जाता है। जैनशास्त्रों में यह भेद निर्दिष्ट है। अशोक भी एक देश अथवा पूर्णरूपमें धर्मका पालन करनेकी सलाह देते हैं । तथापि वह सावधानतापूर्वक कह रहे हैं कि आश्रवके फंदेसे तबही छूटा (अपरिस्रवे) जासक्ता है, जब सब परित्याग करके बड़ा पराक्रम किया नाय ! यह बड़ा पराक्रम त्यागके परमोच्चपद श्रमणके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जैनशास्त्रों का ठीक यही उपदेश है। (७) अशोकके निकट देवताओंकी मान्यता भी जैनोंके समान थी। वह कहते हैं कि देवताओंका सम्मिश्रण यहां के लोगोंके साथ बन्द होरहा था; उमको उन्होंने फिर जीवित कर दिया । जैनशास्त्रों का कथन है, जैसे कि सम्राट चन्द्रगुप्तके सोलह स्वप्नोंमसे एक स्वपके फलरूप बतलाया गया है कि अब इस पंचमकालमें देवता लोग यहां नहीं आयेंगे; ठीक यही बात अशोक कर रहे हैं। १-अध० पृ०७४-७५ सानाधका प्रथम लघु० शिला। -अध पृ० १८९ सप्तमशिला। ३-अध० पृ० २२० दशमशिला । ४-जैमू, भा० २ पृ० ५७ व अपाहुड़ पृ० ३८-४० व ५७ । ५-रूपनाशक प्रथम लघु शला०-जगएपो० सन् १:१ पृ. १४। ६-जैहि० मा. १३.०० २३९ ।... . . . .
SR No.010471
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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