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________________ मौर्य साम्राज्य। [२६७. कार्योको करना पारिलौकिक धममें सहायक होने के लिये बताया है। प्रवृत्ति भी निवृतिकी ओर ले जानेवाली है। भशो भी इस मुख्य भेदके महत्त्वको स्पष्ट करके तद्रूप उपदेश देते हैं। । जिसप्रकार अशोककी धार्मिक शिक्षायें जैनधर्मके अनुकूल हैं; अशोकने जैनोंके उसी प्रकार उनके शासन-लेखोंकी भाषामें भी पारिभाषिक शब्द भनेक बातें जनधर्मकी द्योतक हैं । खास बात व्यवहृत किए थे। तो यह है कि उन्होंने अपने शासन-लेख प्राकृत भाषाओं में लिखाये हैं। जैसे कि जैनोंके ग्रंथ इसी भाषा में लिखे गये हैं। अशोककी प्राकृत जैनोंकी अपभ्रंश प्राकृतसे मिलती जुलती है।' तिसपर उन्होंने जो निम्न शब्दों का प्रयोग किया है, वह खास जैनोंके भावमें है और जैनधर्ममें वे शब्द पारिभाषिक रूप (Technical Term) में व्यवहृत हुये हैं; यथाः (१) श्रावक या उपासक-शब्दमा प्रयोग रूपनाथके प्रथम कधु शिलालेख वैराट और सहसरामकी आवृतिमें हुआ है । जैन धर्ममें ये शब्द एक गृहस्थके द्योतक हैं। बौद्ध धर्ममें श्रावक उस साधुको कहते हैं जो विहारों में रहते हैं। अतः यह शब्द अशोकके जेनत्वका परिचायक है। . (२) पाण-शब्द ब्रह्मगिरिक द्वितीय लघु शिलालेखमें प्रयुक्त हुआ है। जैनधर्म, संसारी जीवके दश प्राण माने गये हैं १-शाइवाजगढी और मन्सहराकी शिलाओंपर खुदी हुई अशोककी प्रशस्तियोंकी भाषा जैन अपभ्रंशके समान है। देखो ' प्राकवलक्षण' by Dr. R. Hoornle, Calcutta, 1880. Introduction. २-अष्टपाइ पृ० १९ व उद: । ३-ममबुः भूमिका, पृ० १३ ॥
SR No.010471
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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