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________________ ज्ञात्रिक क्षत्री और भगवान महावीर। [१०७. वासनाओंका गुलाम बन रहा है। ज्यों ज्यों वह भोगवासनाओंको तृप्त करनेका प्रयत्न करता है, वैसे ही इसके दुःख और पट अधिक बढ़ते हैं । एक मूक्ष्म अनीव पदार्थ, जिसको 'कर्मवर्गणा' (Karmic Molecules) कहते हैं, उसके इस भोगप्रयासमें कषायोद्रेकसे आकपित होकर उसमें एक काल विशेषके लिये सम्बद्ध होजाता है और . फिर अपना सुख दुख रूप फल दिखाकर वह अलग होता है। इस आगमन क्रियाको भगवानने 'मानव' तत्व बतलाया और बन्धन तथा रुकने व विलग होनेके प्रयोगको क्रमशः "बंध", "संवर" और "निरा" तत्त्वके नामसे उल्लेख किया था। कर्मोके गावागमनका यह तारतम्य उस समय तक बराबर जारी रहता है, जबतक कि जीवात्मा इच्छाओं और वासनाओंसे अपना पिंड छुड़ा नहीं लेता है। जिप्त समय वह भोगके स्थानपर योगका महत्व समझ जाता है, उस समय उसका जीवन एक नये ढंगका होजाता है । पहले जहां वह भोगवार्ताओंको प्रमुखस्थान देता था, वहां अब वह पद पद पर संयमी जीवन वितानेकी कोशिश करता है। वह सच्चे सुखके सनातन मार्गपर आनाता है और क्रमशः इच्छाओं और वासनाओं का पूर्ण निरोध करके कर्मोसे अपना पीछा छुड़ा लेता है । बस, वह मुक्त होनाता है और सदाके वास्ते पूर्ण एवं अक्षय मुखका भोक्ता बन जाता है। लोग उसे पूर्णताका आदर्श मानकर उसकी उपासना और विनय करते हैं । वह जगतपूज्य बन जाता है। और सिद्ध-बुद्ध, सच्चिदानन्द परमात्मा कहलाता है। भगवान महावीरने इस सनातन मार्गका पूरा २ अनुसरण अपने जीवन में किया था और
SR No.010471
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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