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________________ या अभ्य शस्त्र से काम लिया गया हो या बलपूर्वक किसी दीन या ममर्ग को जैन बनाया गया हो; क्योंकि जैन धर्म का प्रधान मा हिमा है। अहिमा का स्वरूप यनवलु कवाय योगात् प्राणानां द्रव्य भाव रूपाणाम् । व्यपगेपणम्य करणां मुनिश्चिता भयति मा हिंसा ।। -पु० सि० श्री अमृतचन्द्र मूरि क्रोध, मान, माया, लोभादि कपायों से या मोहादि मे मन, वचन. काया में जो चञ्चलना प्राती है, उससे अपने या दूसरे नागियों के द्रव्य प्रागों का या भाव प्राणों का घान करना, या घात करने का इरादा करना नित्रय महिमा है काग-'च इन्द्रिय -पव-मना ३-घ्राण '-चन ५-यात्र-मानयल 5-मनायल ७-बचनबल - काययन . स्वामीन्छवाम :-प्राय:-ये दश है। भान गि-नमन् श्रावण कर्म के नायशमादि मे जोष में विपन का व्यवहार हा उसे भावप्राण कहते हैं। अमादुर्भावः ग्वनु गगादीनां भवन्याहमति । नेवापेवाप्पत्निाहिसेनि जिनागमस्य मंक्षेपः ॥ ___-पु० मि. श्री अमृतचन्द्र पनि अमनी बान ना यह है कि प्रारमा में अपने या दसरे को मनाने के लिये गगढ प न होना ही अहिंसा है और गंगष
SR No.010470
Book TitleSankshipta Jain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaiya Bhagwandas
PublisherBhaiya Bhagwandas
Publication Year
Total Pages69
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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