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________________ है। जब तक शरीर का सम्बन्ध रहता है. तब तक वे जीवनमुक कहलाते हैं। ५-जब शरीर का मम्बन्ध छुट जाना है, नब मिद-हो जाते है। सिद्ध होने बाद के उनका ममार ने कोई सम्बन्ध नहीं रहता रमोनिये उन्हें मुक्त कहते है। अरहन और मिद्धही न कहलाते हैं जैनधर्म मुक्त नवा संमार में फिर से वापिम लोटना नहीं मानते। ग्योंकि, मंमार में परिभ्रमण करनेवाला कर्म-पटल मिडों को कभी नहीं नया मकना । वह कर्मों से सर्वादा मुक है। जिन की उपासना अब यह होता है कि जन-धम जय कि जिन को गगढ़ प हत वानगन और मा मानना है और यह मी मानना है कि हमारी उपासना में प्रमत्र होकर वे हमको दयार कुछ नहीं देने । न देने ले का उनका स्वभाव ही है, नय उनका उपामना या पूजा. भफि. नवन अदि क्या किया जाता है ? इमका उत्तर एक प्रधान महपि ने इमप्रकार दिया है: न स्नेहाच्छरगां प्रयान्नि भगवन् पादद्वयं ते मना । हेतुस्नत्र विचित्र वाग्वनिचयः संमार घोरागावः ।। अत्यन्न स्फुर दुग्रश्मि निकरः व्याकीण भूमंडलः । ग्रकः काग् यतीन्द पाद मलिल छायानुराग रविः ॥ -दशभक्तिः है भगवान मंमार के जाव अापके चरणों में न तो किसी ह से प्राते हैं और न किमी दबाव सही। दरबमल उनके श्राने का कारण यह है कि मंमार के गंग-शाक. प्राधि-व्याधि
SR No.010470
Book TitleSankshipta Jain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaiya Bhagwandas
PublisherBhaiya Bhagwandas
Publication Year
Total Pages69
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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