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________________ नम्र निवेदन ममय परिवर्तनशील है। अतः कोई भी पदार्थ संसार में अपनी एक-सी स्थिति बनाए नहीं रह सकता। भगवान ऋषभदेव द्वारा प्रचलित, भगवान पार्श्वनाथ के द्वारा प्रवदित और भगवान महावीर द्वारा प्रचारित हमार जैनधर्म की भी ऐसी ही दशा है। आदि तीर्थक्करों की बातों को तो जाने दीजिए। केवल अलिम नीर्थकर भगवान महावीर को ही लीजिए । भगवान महावीर ने मंसार को समता का पाठ पढ़ाया. जीवमात्र के माथ मंत्री करना सिखाया, ज्ञान गुण की आत्मा का निज म्प बनाया एवं गगद्वंप को मंसार-बन्धन का कारण भी बनाया था। इसलिये भगवान की व्याम्यान-मभा में परम्पर विरोधी जीव मामुहिक शान्ति का अनुभव कर श्रापमा वा विरोध आदि को भूल गए थे और यही बाम कारण है कि भगवान की दिव्य पताका की शरण लेकर अात्मानुभव तक करते थे। उम ममय का जैन समाज भारतवर्ष में अपना एक खाम व्यक्तित्व रखता था। दया, हिमा, वान्मल्य आदि गुणों ने मंमार में ऐसी धाक जमा रखी थी कि भारत के व्यापार में, व्यबहार में, और परोपकार प्रवृन आदि सभी में जैनी मनसे प्रमुग्य माने जाते थे । इसका मुख्य कारण हमाग उम ममय में मामूहिक मंगठन था और भगवान महावीर के मान का पूर्ण श्राशय हम अपने हृदयों में अपनाए हुए थे । यही मुख्य कारण है कि हमारी सहानुभूति जीवमात्र से है। किन्तु दुर्भाग्य में आज समय ने
SR No.010470
Book TitleSankshipta Jain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaiya Bhagwandas
PublisherBhaiya Bhagwandas
Publication Year
Total Pages69
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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