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________________ इतना जानते हुए भी इसमें एक बड़ी भयकर बाधा उपस्थित हुआ करती है। इस प्रकार की बाधा मनुष्य प्रकृति के कारण समाज में बगवर ही पैदा होती रहती है। प्रत्येक मनो-विज्ञानशानी हम बान को भली-भांति से जानता है कि मानव जानि अर्थात मनुष्य पाणी प्रकृति दोष तथा गुणों का सम्मिश्रण या मष्टि है। जहाँ उसमें अनेक अच्छे अर्थात् देवोचित गुणों का समावेश रहना है, वहीं पर उन में अनेक बुरे या असुगंचिन दुगुणों का भी समावेश रहना अनिवार्य है। इस प्रकार की मनुष्यप्रकृति की कमजोरी का रहना इतना अटल तथा अनिवार्य है कि मंमार का कोई भी धर्म कसा भा काल में उसका दूर करने में न कभी सफल ही हुआ है. और न भविःय में ही वह सफल होने की आशा कर सकता है। यह नितांन ही असम्भव है कि मुष्टि की य क प नचा घातक प्रवृनियों बिल्कुन हो विनष्ट होकर रहेंगी । प्रकृति के अन्नगन सदा-मयंदा ये रही हैं. और रहेंगी। अनाव ऐमा आशा करना एकटम हो व्यर्थ है कि काई भी धर्म इन कुप्रवृत्नियों का नाश कर विश्रव्यापी शान्ति के प्रमार करने में मफल ही हो जायगा। हां, इतना जरूर हो सकता है कि प्रयत्न करने पर मनुष्य समाज में कुपवृत्तियों की संख्या में कमी तथा म.पत्तियों की स ख्या में प्राधिक्य हो सकता है। इस प्रकार यह प्रमाणित हो जाता है कि जो धर्म मनुष्य को सत्पवृत्तियों को निकालकर मामाजिक शानि को रक्षा कर मनुष्य जात को आत्मिक उन्नति का मार्ग बतलाता है, वहीं धर्म अंट है। इमी कसौटी पर यदि जैन धर्म का रखका कमा जाये, ता उसका जौहर स्वयमेव ही म्वुलक रहेगा। जैन-धर्म के अन्तर्गन
SR No.010470
Book TitleSankshipta Jain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaiya Bhagwandas
PublisherBhaiya Bhagwandas
Publication Year
Total Pages69
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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