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________________ अथात जिसपकार मनुष्यमात्र में प्रत्येक को सुख पिय और दुःम्ब अपिय लगता है. नमी प्रकार ही वह अन्य पाणो को भी मालूम होता है। इस कारण हम में से प्रत्येक का कर्तव्य है कि अपनी प्रान्मा की तरह ही दमरों की प्रामाको ममझकर उनके पनि अनिष्ट करनवाल काय न करना चाहिए । इसी बात को ध्यान में रम्बका भगवान महावीर ने एक लोक इम प्रकार से लिखने की कृपा का है:मध्ये पागा पिया उया, महसाया, दुह पडिकूना अप्पिय वहा । पिय जोरिणों, जीवि उकामा, (तम्हा) पाति वाएज किचरणं ।। ___ अर्थात मभी पागा का श्राय पिय है । मभी मुग्य के अभिलापी हैं । दुग्ब मबकं पतिकूल है. बर मयका अपिय है। सभी जीने को इच्छा ग्यते है । इन कारण किमी को मारना, अथवा कष्ट पहुँचाना हा न चाहिए। पक्ष यहाँ पर अब यह उठता है कि इसप्रकार की अहिमा का पालन मनुष्य से हो ही नहीं मकना । कारण ऐमा कोई भी स्थान नहीं है, जहा पर जीव न हो । जल में, म्यल में. पवन का चोटी पर, अग्नि नथा वायु आदि मभी जगह ममार में जीव भरे हुए है । इम कारगण मनुष्य का प्रत्येक व्यवहार में-वानापीना, चलना फिरना, बैठना उठना, पापार-विहार श्रादि मेंजीव हिमा हानी ही है। इस कारण मनध्य अपनी मार्ग क्रियाओं को ही यदि यन्त का देवे. नभी वह उम प्रकार की हिंमा से बच मकता है जैमा कि करना मनुष्यमात्र के लिय अमम्भव है। जैनाचार्यो ने मनुष्य जानि को मोचा नही, मा नहीं कहा जा मरता। यही कारण है कि उन्होंने इस अहिंसा को खूब अध्ययन आदि के बाद मनुष्य-प्रकृति के अनुकूल रूप देने का
SR No.010470
Book TitleSankshipta Jain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaiya Bhagwandas
PublisherBhaiya Bhagwandas
Publication Year
Total Pages69
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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