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________________ जाने पर भी वह अपरमिन हो रह जाती है। जैनधर्म को अहिंसा की मोटा को यदि विश्व की तरह अमर्यादित तथा प्राकारा को तरह अनन्त भी कहें. तो अनुचित न होगा। जैनधर्म के इस महान तत्व के यथाथ रहस्य को ममझने ममझाने का प्रयाम जैन-धर्मावलम्बियों में से घिरनों ही ने किया है । संसार के बडे-बड़े कितने ही धुगंधा विद्वानों को राष्टि में हमारा यह अहिमा तत्व अव्यवहार्य, अनावरणीय, प्रास्मघातकी तथा कायग्नापूर्ण मममकर गणनाशक तक कहने में श्रा रहा है । ममार के सभी लोगों के दिमागों में इस बात ने घर कर लिया है कि इसी अहिसा नब ने ही भारत को कायर तथा निर्वीर्य तक बना दिया है। इसका मुख्य कारण यह है कि माधुनिक जैन-ममाज मे अहिमा-नन्व का जिम रूप में देखा तथा माना जाता है, उससे वास्तव में वहा प्रतिफन होना अनिवार्य भो है । जैनधम के अहिंमा-नव ने प्राधनिक समय के जैन-समाज को अवगही कायरता का रूप दिया है । जैनधर्म के वर्तमान अहिसा के रूप का देखकर विद्वान लोग जैन-बम को यदि कायरता प्रध न धर्म कहते है, ना उसके लिये जैन ममाज को दुग्यो होने का कोई भी कारण नहीं है। जैन धर्म के अहिमा-तत्व का वास्तविक रूप इस वर्तमान रूप से एकदम ही विभिन्न है। उसका वर्तमान रूप तो एकदम ही विकृन या बिगड़ा हुअा उमका रूप है। जैन-समाज इस ममय में भारत की ममृद्धिशाली स्थिति में रहकर भी जैन-धम के मिद्धान्त का दृष्टि में पतनोन्मुम्बी स्थिति को प्राप्त हो चुका है । बस के मारे मिद्धान्न माध या यति-समाज नक ही सीमित रह गए हैं। उनमें भी हाथी के दांतों की तरह खाने तथा दिग्याने की दृष्टि से विभिन्ननाबाले देखने में बात है। ममाज में जब
SR No.010470
Book TitleSankshipta Jain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaiya Bhagwandas
PublisherBhaiya Bhagwandas
Publication Year
Total Pages69
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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