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________________ ( ५८ ) जंतु व अशुद्ध कपड़ों के द्वारा रोगी जन्तु भोजन में न भाये यह सम्हाल जरूरी है जैन शास्त्रों से यह पता चलता है कि ऋषभदेव भगवान ने इस भरत क्षेत्र के आर्य खंड में उस समय के योग्य खान पानादि विवाहादि आजीविकादि की रीतियें प्रचलित की जिनसे प्रजा पाकुलता रहिव अपना निर्वाह कर सके-धर्म का उपदेश तो तीर्थकर भगवान उस समय तक देते नहीं है जब तक उनको सर्वज्ञ पद का लाम न हो जाये । उस समय ऋषभदेव ने प्रजा के सुख से निर्वाह के लिये तीन वर्ण स्थापित किये-जिन लोगों को देश की रक्षा के योग्य मजबूत देखा उनको क्षत्रिय वर्ण में, जिनको कृषिभ्यापारादि के योग्य देखा उनको वैश्य वर्ण में, जिनको शिल्प व सेवादि कार्य के योग्य देखा उनको शूद्र वर्ण में स्थापित किया। उन्होंने यह आज्ञा दी कि हरएक वर्ण वाले अपनी अपनी आजीविका करें यदि काई दूसरे की करेगा तो दंड का पात्र होगा। यह आशा इसीलिये दी कि वर्ण व्यवस्था संगठित हो जावे । सन्तान प्रति सन्तान एक ही प्रकार का व्यवसाय कुटुम्ब के भावों में उस व्यवसाय की सुगमता व दक्षता स्थापित कर देता है । तथा विवाह के लिये यह उचित समझा कि हर एक वर्ण वाला अपने अपने २ वर्ण में विवाह करे यदि कभी आवश्यकता हो तो क्षत्रिय वैश्य तथा शूद की, वैश्य शूद्र की कन्या विवाह सकता है। जब ऋषभदेवजी केवल शानी हो चुके और जैन धर्म का प्रचार जनता में फैल गया तब ऋषभदेव के पुत्र ने यह समझ कर कि कोई समाज ऐसाभी स्थापित करना चाहिये कि जो लोगों को धर्म में लगावे, उनको विद्या पढ़ावे, श्राप संतोष से रह कर धर्म साधन करे व जो अन्य भक्ति से
SR No.010469
Book TitleSanatan Jain Mat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherPremchand Jain Delhi
Publication Year1927
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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