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________________ ( २३ ) पंच पापों के विरोधी अहिंसादि पाचनत हैं, कपायों का विरोधी चीतराग भाव है, मन वचन काय का विरोधी इनको यश रखना है। जिन भावों से कर्म रुकते हैं वह भाष संवर है और कमों का रुकना द्रव्य संबर है। (६) निर्जरातत्त्व-पुराने बंधे हुए कर्मों को दूर करने को निर्जरा कहते हैं-कर्मस्कंध बंधने के पीछे धीरे धीरे अपना फल देकर झड़ते जाते हैं । जैसे हम स्वयं भोजन जल हवा लेते व स्वयं उनका फल नित्य भोगते हैं वैसे संसारी जीव स्वयं पुण्य पाप कर्म बांधते हैं और उनका सुख दुःख फल भोगते हैं। इसके सिवाय आत्मघ्यान व वीतराग भाव के द्वारा बिना फल भोगे हुए अनेक कर्मस्कंधों को आत्मा से जुदा करना सो वास्तव में निर्जरातत्त्व है। जिन शुद्ध वीतराग भावों से कर्म झड़ते हैं वह भावनिर्जरा है तथा कर्मों का झड़ना सो द्रव्य निर्जरा है। (७) मोक्षतत्त्व-आत्मध्यान के अभ्यास से सब कर्म बंध कट जाते हैं-व नए कर्म नहीं बंधते हैं तब यह जीव कार्मण देह से छूट कर बिलकुल शुद्ध हो जाता है तब जिस शरीर से मुक्त होता है उस शरीर के आकार जैसे आत्मा के प्रदेश थे उनका वैसे ही स्थित रहना व स्वभाव से ऊपर जाकर लोक शिखर पर ठहर जाना सो मोक्ष है। जिन भावों से सब कर्म स्कंध छूट जाते हैं वह भाव मोक्ष है और सब कमों का छूट जाना द्रव्य मोक्ष है। इन सात तत्वों से यह ज्ञात होता है कि यह आत्मा अशुद्ध कैसे होता है व अपनी अशुद्धता को कैसे मेट सकता है। यह व्यवहारनय से प्रात्मतत्व का ज्ञान है । जैनमत कहता है कि निश्चय
SR No.010469
Book TitleSanatan Jain Mat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherPremchand Jain Delhi
Publication Year1927
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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