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________________ ( १४ ) है ऐसा निश्चय से जानो ||१९|| जैसे कोई धन को चाहने वाला पुरुष राजा को आन कर उसका श्रद्धान करता है और फिर उसी राजा की उद्योग करके सेवा करता है ||२०|| इसी तरह ओ मुक्ति चाहता है उसको उचित है कि आत्मारूपी राजा को जाने, उस पर चिलावे तथा उसका ही श्राराधन या ध्यान करे 'श्री उमास्वामी ने तत्वार्थ सूत्र में भी यही कहा है। " सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रणि मोक्षमार्गः” भाव यह है कि अपने श्रात्मा के सचे स्वरूप का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । उसी ही का संशय रहित यथार्थ जानना सम्यग्ज्ञान है तथा उसी ही के स्वरूप में एकचित्त हो आचरण करना सम्यग्चारित्र है- ये तीनों आत्मीक गुण हैं। आत्मा से भिन्न नहीं हो सके | इसलिये जो आत्मा का ध्यान करता है वह सुख शांति पाने व स्वाधीन होने के मार्ग पर चलता है और कभी न कभी परमसुखी, परमशांत और बिलकुल स्वाधीन हो जाता है । आत्मा का क्या स्वभाव ? हमको आत्मा का स्वभाव जैसा वह शुद्ध अवस्था में होता है । विचारना है । यद्यपि हम आत्मा हैं परन्तु संसार अवस्था में हम युद्ध हैं, पाप पुण्यमई कर्मों के बंधन में जकड़े हुए हैं, इसी से क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, भयवान, इच्छावानं, दुःखी व सुखी,
SR No.010469
Book TitleSanatan Jain Mat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherPremchand Jain Delhi
Publication Year1927
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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