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________________ जंगली होते आदि बिना गर्भ से पैदा होने वाले छाने, स्वाद लेने, सूचने क देखने व सुनने की इच्छाएं होती है। ६ मनवाले पंचेन्द्रिय-घोड़ा, गाय, बन्दर, ऊँट, हाथी, काक, मोर, कबूतर, नाग, मच्छ, मनुष्य, देव, नारकी आदि इनके पाँचों इन्द्रियों के इच्छाओं के सिवाय मन के भीतर उठने वाले अनेक संकल्पों के पूरा करने की अनगिनती इच्छाएं होती हैं। जैसे मानवों में देखी जाती हैं । इसलिये वह प्रत्यक्ष प्रगट है कि हरएक संसार का प्राणी इच्छात्रों को प्राकुलता से दुःखी है । और उनकी पूर्ति के लिये जब तक जीता है तब तक कोशिश करता है परन्तु कभी ऐसी दशा में नहीं पहुँचता जब इसको इच्छाएं सर्व पूरी हो जावें और यह निराकुल या स्थिर सुखी हो जावे । बड़े बड़े कुटुम्बी धनवान पुत्र होने पर पौत्र, पौत्र होने पर प्रपौत्र इत्यादि का मुंह देखना चाहते हैं और श्राप सदा बलवान, निरोगी व अमरं होना चाहते हैं पर विचारे अन्त में निर्यल रोगी होकर इस शरीर से छूट जाते हैं तब भी उनकी इच्छाएं नहीं मिटती हैं। हर एक विचारवान प्राणी को स्वयं अपने जीवन पर ध्यान देना चाहिये । वह यही देखेगा कि उसकी इच्छाएं जितनो जितनी पूरी होती हैं उतनी उतनी बढ़ती चली जाती हैं । सच बात यह है कि जैसे समुद्र नदियों के मिलने पर भी भरता नहीं व अनि ईधन से तृप्त नहीं होती, उसी तरह इच्छाओं व आशाओं का बड़ा भारी गहा किसी का भर नहीं सकता।
SR No.010469
Book TitleSanatan Jain Mat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherPremchand Jain Delhi
Publication Year1927
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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