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________________ इस अज्ञानी प्राणी को इस उपाय से न स्थिर शांति मिलती है और न स्थिर संतोष होता है क्यापि भीतरी भावना हर एक प्राणी की यही है । कोई बकना व लड़ना नहीं चाहता परन्तु कोध के आवेश में बकता है, लड़ता है, महा दुःखी होता है पीछे जब कोध ठण्ढा होता है तब अपनी उस क्रोध की दशा को बुरा समझने लगता है। और मन में ऐसा सोचने लगता है कि कोध करना बहुत बुरा है यदि न करता तो ठीक था-इस सोचने का कारण यही है कि उसको कोध के समय बड़ी अशांति का सामना करना पड़ा था । इसी तरह एक आदमी भारी लोभ में फंसकर किसी का माल उठा ले जाता है और वह उठाता भी इसीलिये है कि इससे उसको संतोष श्रावे अर्थात् वह अपनी आशा का गड्ढा भरे परन्तु जब वह पकड़ा जाता है और दंड पाता है तब सिवाय उस प्राणी के जिसका मन लगातार चोरी करने से व दंड पाने से विवेक शून्य, व ढीठ हो गया है हर एक कुछ भी विचार रखने वाला प्राणी पछताता है और सोचता है कि यदि यों ही धन मिल जाता तो वह चोरी नहीं करता और इस अशांति में नहीं आकर गिरता । प्रयोजन दिखाने का यही है कि इस चोर को भी शांति और संतोष ही प्यारा है । किसी इच्छा के पैदा होने पर उसके पूरा करने की चिन्ता होती है। जब तक वह पूरी न हो उसके सम्बन्ध में लोभ रहता है, इसी लोभ के भरने के लिये मायाचार करता है । यदि कोई इसके उपाय में विघ्न करता है तो उससे कोध करता है, उसको नीचव अपने को ऊंच समझ कर मान करता है । यदि इच्छा के अनुसार काम हो जाता है तब उस इच्छा के भरने से वह उस समय संतोष, शांति व सुख पा
SR No.010469
Book TitleSanatan Jain Mat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherPremchand Jain Delhi
Publication Year1927
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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