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________________ दूषण शका ७९ भगतने के लिए नर्क और सद्कार्यों-पुण्य कर्मों का सुखरूप फल पाने के लिए स्वर्ग है, किंतु यह बात तर्क परम्परा मे उलझनेवालो के समझ मे नही पाती । वे तो शकाशील रहकर नास्तिकता के पात्र ही रहेगे। संसार मे जितने भी मत-मतान्तर हैं, उन सब के अपने अपने सिद्धात है, और उनके अनुयायी तदनुसार मानते है, तभी वे उस मत के अनुयायी कहलाते हैं। उसी प्रकार जैनसिद्धात को माननेवाला ही जैन कहा जा सकता है । जैन सिद्धात मे सम्यग्दष्टि की जो परिभाषा की गई और जो नियम स्वीकार किये गये, तदनुसार माननेवाले ही जैनी या सम्यग्दृष्टि हो सकते है। इसके विपरीत विचारवाले और उन सिद्धातो को दूषित करनेवाले तथा उनके विपरीत प्रचार करने वाले जैनी नही, सम्यग्दृष्टि नही, किंतु अजैन एवं मिथ्यादृष्टि ही हैं । धार्मिक विषयो मे व्यक्ति के स्वतन्त्र विचारो का कोई महत्व नही है, फिर वह कितना ही उच्च विद्वान् क्यो न हो । यदि व्यक्ति की अपनी इच्छानुसार ही दर्शन का रूप बनता जाय, तो यह मात्र विडम्बना ही है । उस दर्शन का नाश ही समझिए । फिर-जितने व्यक्ति उतने दर्शन । इस प्रकार के प्रयत्न,सम्यक् श्रद्धान को नष्ट करने वाले हैं। शंका रूपी राक्षसी से ही मत-विभिन्नता बढकर उन्मार्ग की प्रवृत्ति होती है। शंका के कई रूप होते हैं । देश-शंका और सर्वशंका । इन दो भेदो में सभी प्रकार की शंकाओ का समावेश हो जाता है। आज कल के पडितो मे सर्वशंका का प्राबल्य दिखाई देता
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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