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________________ ७६ सम्यक्त्व विमर्श हा अपने ही तर्क को पकडकर अश्रद्धालु नहीं बनना, यही हित. कर है। जिस वस्तु को पंडितजी नही मानते और नास्तिक बनते है, किंतु उसी बात को सारी दुनिया मान रही है । खुद भी यदि अपने अध्यापक पर विश्वास नही करते और स्वय सोच विचार करते रहते कि "अध्यापकजी मुझे जो कुछ पढा रहे हैं, वह सही पढा रहे है, या गलत ? मैं स्वयं जबतक इसकी परीक्षा नही करलूँ तब तक पढूं ही नहीं", तो वे पंडित नही बन सकते थे। हम अन्यत्र तो छद्मस्थो पर विश्वास करलेगे, किंतु दर्शन और धर्म के मामले मे किसी पर विश्वास नहीं करेगे। इसका कारण यही है कि कुश्रद्धा के चक्कर मे पड कर नास्तिक बन गये है । उन्होने आगे यह भी लिखा है कि "नास्तिक शब्द की एक सर्वसम्मत व्याख्या यह भी है कि जो आत्मा और परलोक को न माने। मै अपनी तुच्छ बुद्धि से अभी तक इस विषय मे सदेह ही करता हूँ।" आगे लिखा कि "मुझे आत्मा या परलोक का साक्षात्कार है ऐसा मैं नही मानता और जबतक ऐसा साक्षात्कार नही होता, तबतक ऑस्तिक की अपेक्षा नास्तिक बना रहना ही अच्छा समझता हूँ।" आत्मा और परलोक के विषय मे पडितजी को कभी साक्षात्कार हो जाय-यह असभव ही लगता है । आत्मा को तो वे देख सकते नही, क्योकि वह अरूपी है, और परलोक का साक्षात्कार करेगे जब की बात है, क्योकि वह इस जिन्दगी मे संभव नही है । इस प्रकार वे जीवन भर नास्तिक ही बने
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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