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________________ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की अस्थिरता ६६ धर्मोपदेश मे भी सबसे पहले आस्तिक्य पर जोर दिया है, जैसे कि-'अत्थिलोए....... आदि (उववाई) श्रद्धा को परम दुर्लभ मानना (उत्त० ३) भी आस्तिक्य के महत्व को सिद्ध करता है । जितना पराक्रम जीव को आस्तिक बनने और बने रहने में लगाना पड़ता है, उतना और किसी मे नही लगाना पड़ता। क्षायोपशामिक सम्यक्त्व की अस्थिरता सम्यक्त्व तीन भावो मे होती है,-१ औपशमिक २ क्षायिक और ३ क्षायोपशमिक । औपशमिक सम्यक्त्व किसी भी जीव को पांच बार से अधिक प्राप्त नही होती और क्षायिक सम्यक्त्व तो एक बार ही प्राप्त होती है। औपशामिक सम्यक्त्व तो अवश्य ही नष्ट होती है और क्षायिक अमर है । यह आने के बाद स्थिर ही रहती है । उपशम मे मिथ्यात्व के बीज सुरक्षित रहते हैं, परन्तु क्षायक मे तो समूल नष्ट हो जाते है । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की दशा विचित्र होती है। यह एक भव मे उत्कृष्ट हजारो बार (६ हजार बार तक) या जा सकती है। और इसका विस्तार भी संसारी जीवो मे सर्वाधिक होता है। औपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व वाले ससारी जीवो से,क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी असंख्यगुण अधिक होते है । इस सम्यक्त्व के स्वामी श्रीगौतमस्वामीजी महाराज जैसे भी होते हैं, जो गणवृद्धि के द्वारा क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर लेते है, और ऐसे जीव भी होते है-जो ६६ सागरोपम से अधिक काल तक कायम रखकर मुक्त होते हैं, किंतु इसके विपरीत ऐसे जीव भी होते
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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