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________________ ६२ सम्यक्त्व विमर्श मे, और देश तथा सर्वचारित्र की अपेक्षा मनुष्यो मे जैनधर्म। है। इतने व्यापक और विशाल क्षेत्र मे जैनधर्म है। यदि सभी मनुष्य इसे अपनाना चाहे, तो गरीब से लेकर अमीर, रंक से लेकर राष्ट्रनायक, और कृषक से लेकर सेनापति तक अपना सकते है। किंतु ऐसा होता नही है। उदयभाव की विचित्रता एवं विविधता के कारण जीवो की परिणति भी विविध प्रकार की होती है, और परिणति की विविधता के कारण रुचि भी भिन्न भिन्न होती है । सारा ससार एक ही धर्म का उपासक और एक ही मत का हो जाय-ऐसा कभी नही हो सकता। जीवो की विविध परिणति, रुचि, मान्यता और आचरण रहता ही है । अतएव धर्म मे योग्यता होते हुए भी जीवो की अयोग्यताजीवो के उदयभाव की विचित्रता, के कारण सभी मनुष्य एक धर्म के अनुयायी नही बन सकते। एक मत होने मे किसी एक को अपना स्वरूप, लक्ष्य तथा मत छोडना पडता है । या तो धर्म अपना स्वरूप छोड कर सब की इच्छानुसार बन जाय, या सभी जीव अपना अपना मत छोडकर एक धर्म के अनुयायी बन जायँ। क्या ऐसा हो सकता है ? नही, कभी नहीं । सभी मनुष्यो का एक मत कभी नही हो सकता । एक मत की विभिन्न शाखाएँ भी जब एक नही हो सकती, सम्वत्सरी जैसा छोटा-सा मतभेद भी जैनियो की विभिन्न सम्प्रदायो का नही मिटा, नवीन विशाल बूचडखाने 'जैसे प्राणी-हत्यालय बंद करवाने मे भी एक प्रात, एक नगर के सभी मनुष्य एक मत नही हो सके, तो ससार के सभी मानव एक धर्म के अनुयायी हो जायँ, यह तो असंभव एवं अशक्य ही है।
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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