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________________ सम्यक्त्व विमर्श है, जो दुनिया के किसी भी मनुष्य की दृष्टि मे नही है, जब वे प्रकाश मे आवेगी, तब ससार चकित होकर उनको सर्वथा नयी मानने लगेगा । इसी प्रकार सर्वज्ञता के विषय में भी जानना चाहिये । ससार के समस्त द्रव्यो और उनके गुण पर्यायो के ज्ञाता-दृष्टा सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, किसी समय इस ससार मे अवश्य थे और हजारो वर्ष बाद भी अवश्य होगे। प्रत्यक्ष को ही सब कुछ और सर्वथा सत्य मानकर अप्रत्यक्ष वस्तु के लिये सर्वथा इन्कार करने वाले सुज्ञ नही है। प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने वालो के लिये उपयुक्त अद्भत वस्तुएँ-प्राविष्कार के पूर्व-अमत्य मानो जाती थी, वे ही निर्माण के बाद सत्य मानी जाने लगी । इसी प्रकार आगे भी होगा । अतएव प्रभु की सर्वज्ञता सर्वदर्शिता से इन्कार करना समझदारी नहीं है, यह मिथ्यादष्टि का परिणाम है। देश सम्यक्त्व क्यों नहीं प्रश्न-यदि तीर्थंकरो की सर्वज्ञता मान ली जाय, किंतु षट्-द्रव्य नौ-तत्त्वादि मे से किसी एकाध तत्त्व अथवा उसके किसी अश को नहीं माना जाय, तो मिथ्यात्व नही लगना चाहिये । जिस प्रकार पूर्ण रूप से चारित्र नही पाल सकने वाले को कुछ कम पालने पर देश-चारित्री कहा जाता है, उसी प्रकार देश सम्यक्त्व भी मानना चाहिये ? उत्तर-सम्यक्त्व तो पूर्ण रूपेण होती है, देशरूप मे नही । क्योकि जहाँ किसी एक वस्तु के लिये इन्कार हुआ,वहा मिथ्यात्व का प्रवेश हो ही गया । प्रज्ञापना सूत्र के बावीसवे पद मे
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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