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________________ ४२ सम्यक्त्व विमर्श गमो से ही देव, गुरु, धर्म और हेयोपादेय को जान सकते हैं । इस समय हमारे लिये देव प्रत्यक्ष नही है, किंतु उनके प्रतिनिधि रूप गुरु और उनके प्रवचन रूप ग्रागम हमारे सामने । उन देवाधिदेव के उपदेश को, उनके प्रतिनिधि ( गुरुदेव ) हमे समझाते हैं । वे निर्ग्रन्थनाथ देवाधिदेव की आज्ञा का पालन, खुद करते है और हमे भी उनकी आज्ञा की प्राराधना करने की शिक्षा देते है | हमे उनकी श्राज्ञा का पालन यथाशवित अवश्य ही करना चाहिये । अटल श्रद्धा www सम्यग्दृष्टि की यह दृढ और अटल श्रद्धा होनी चाहिए कि - ' एक मात्र निर्ग्रन्थ-प्रवचन ही अर्थ है, यही परमार्थ है । इसके सिवाय सभी अनर्थ है । जिसके हृदय में इस प्रकार दृढ विश्वास हो, जिसके ग्रन्तर्पट से यह ध्वनि निकलती हो कि“इणसेव णिग्गंथे पावणे सच्चे अणुत्तरे केवलए संसुद्धे पडिपुण्णे. वह भक्ति पूर्ण हृदय से यह घोष करता हो कि " तमेव सच्चं णीसंकं जं जिर्णोह पवेइयं ।' अर्थात् वीतराग सर्वज्ञ सर्वदर्शी देवाधिदेव ने जो प्रतिपादन किया है, वह पूर्ण रूप से सत्य है, सन्देह रहित है । इस प्रकार हृदय से माननेवाला दृढता पूर्वक निर्णय कर लेता है कि - " णिगंथं पावयणं अट्ठे, अयं परमट्ठे, सेसे अणट्ठे ।”
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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