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________________ ४० सम्यक्त्व विमर्श सम्बन्धी पाप नही करता । शेष अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग सम्बन्धी पाप, मात्र दृष्टि सम्पन्नता से नही टल जाता । फिर भी मिथ्यादृष्टि के प्रभाव और सम्यग्दृष्टि के सद्भाव मे वह अधिकाश पाप से बच जाता है । तत्त्व श्रद्धा क्यों ? प्रश्न-देव गुरु और धर्म की श्रद्धा मात्र से सम्यग्दष्टि प्राप्त हो सकती है, तो फिर नवतत्त्व, षद्रव्य, षट्स्थान आदि पर विश्वास करने की आवश्यकता ही क्या है ? उत्तर-सामान्यतया सभी बाते देव, गुरु और धर्म मे । समावेश हो जाती है । देव को मानने वाला, देव निरूपित तत्त्वो की मान्यता भी करेगा ही । यदि तत्त्वो की मान्यता नही की, तो देव मे श्रद्धा कहा हुई ? तत्त्वो मे अश्रद्धा होना और देव मे अश्रद्धा होना एक ही बात है । इस अश्रद्धा से गुरु मे भी अश्रद्धा हुई ।क्योकि गुरु भी तो देव निरूपित तत्त्वो को मानते और प्रचारित करते है । जो गुरु, देव निरूपित तत्त्वो से विपरीत प्रचार करते हैं, वे वास्तव मे सद्गुरु नही हैं । धर्म की श्रद्धा मे भी तत्त्वो की श्रद्धा आ जाती है, क्योकि धर्म के श्रुत और चारित्र ऐसे दो भेद हैं । श्रुतधर्म मे-'निग्रंथ प्रवचन' अर्थात् सभी तत्त्वो, द्रव्यो और स्थानो का समावेश होता है। नय-निक्षेपादि भी इसीमे है। प्रतएव देवादि तत्त्व-त्रयी मे सभी का समावेश है । संक्षेप-रुचि वाला सम्यग्दृष्टि तो तत्त्व के बनिस्बत देव, गुरु और धर्म पर श्रद्धा ही रखता है। नव तत्त्व के ३ विभाग होते हैं,-१ हेय, २ शेय और ३ उपादेय।
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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