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________________ संघ का यह प्रकाशन दर्शन-मोहनीय कर्म के उत्कट उदय से, जीवरूपी चन्द्रमा मिथ्यात्वरूपी राहु से ग्रसित होकर, विद्रूप होकर हिताहित का विवेक खो देता है। इस मिथ्यादृष्टि के कारण मित्ररूप सम्यक्त्व को शत्रु और शत्रुरूप मिथ्यात्व को मित्र मानने लगता है। कई बार सम्यक्त्वी मनुष्य भी काक्षामोहनीय कर्म के उदय से डिगमिगाकर चञ्चल होजाता है, उसकी श्रद्धा की नीव हिलने लगती है। जब उसके सामने अपने ही धर्म के विविध पक्षो के मन्तव्यभेद, प्राचारभेद और प्रचारभेद प्राता है, तो सामान्य विचारक चक्कर में पड़ जाता है । वह सोचता है कि एक ही जिनधर्म मे यह विविधता क्यो? एकरूपता क्यो नही ? इनमे से सत्य क्या और असत्य क्या ? ऐसे समय यदि बुद्धि काम नही दे, तो मन को आश्वस्त करके स्थिर रखने के लिए भगवतीसूत्र श. १ उ. ३ मे गणधर भगवान् गौतमस्वामीजी म० के प्रश्न के उत्तर मे भगवान महावीर प्रभु ने सरल मार्ग बतला दिया है । वह इस प्रकार है, "तमेव सच्चं णीसंकं जंजिर्णोह पवेइयं"-जिनेश्वर भगवान् ने जो निरूपण किया है, वही सत्य और सन्देह रहित है। इस प्रकार मन मे धारण करता हुआ जीव, प्राज्ञा का पाराधक होता है। मनुष्य, प्रत्येक विषय मे अपनी बुद्धि से निर्णय करना
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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