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________________ सम्यक्त्व विमर्श VN है और जो वीतराग बन चुके है, वे तो सम्यगदृष्टि हैं ही, किंतु उन्ही को सम्यग्दृष्टि मानकर दूसरो मे सम्यक्त्व का प्रभाव मानना मिथ्या है । क्योकि सम्यक्त्व चौथे गुण स्थान से प्रारभ होती है, जहा विषय, कषायादि का अस्तित्व है । श्राप जो बता रहे है, वह स्थिति तो दसवे से आगे के गुणस्थानो मे होती शंका-यदि यो माना जाय कि पात्मिक दृष्टि वाला सम्यग् दृष्टि और पौद्गलिक दृष्टि वाला मिथ्यादृष्टि, तब तो ठीक है न ? समाधान-इसमे भी एकान्त बात नही है । चारित्र मोहनीय के उदय से जीव, भोगरुचि और परिग्रह रुचि वाला होकर भी सम्यग्दृष्टि रह सकता है । चौथे गुणस्थान मे अप्रस्याख्यानी कषाय का उदय होते हुए भी सम्यग्दष्टि कायम रहती है। __ शंका-तीन कपाय वाले प्राणी तो मिथ्यादष्टि ही होते होगे? समाधान-ऐसा एकान्त कथन भी उचित नही है. क्योकि महाप्रारम्भ महापरिग्रह और तीव्र कपाय के सद्भाव में भी सम्यग्दृष्टि हो सकती है, ऐमा दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र के मूल पाठ में लिखा है । सम्यग्दष्टि साथ लेकर छठी नरक तक जा सकते हैं और मातवी नरक में तीन कृष्ण लेश्यावाले नारक मे भी सम्यक्त्व पाई जाती है। दूसरी ओर मन्द कपाय वालो में भी मिथ्यादप्टि हो मकती है। पांचवे स्वर्ग के किल्बिपि देव,
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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