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________________ पतितो और कुदर्शनियो से बचना और दृढ श्रद्धानी है और जो परमार्थ प्राप्ति मे सतत प्रयत्न शील हैं, ऐसे प्राचार्यादि गुणीजनो की सेवा करना । १५ पतितों और कुदर्शनियों से बचना उपरोक्त दो साधन श्रात्मा को उन्नत बनाने वाले हैं । इनसे सम्बन्ध रखने वाले का उत्थान ही होता है । यदि मोहनीय का गाढतम उदय हो, तो वह बात अलग है । साधारणतया परमार्थ संस्तव और सेवन करते रहने वाले के लिए पतन के बाह्य निमित्त कारणभूत नहीं होते। जिस प्रकार आरोग्य चाहने वाले को पौष्टिक खुराक लेते रहने पर भी कुपथ्य से बचते रहना आवश्यक है, उसी प्रकार सम्यक्त्व रूपी आत्मा की प्रारोग्यता बनाये रखने के लिए, नाशक निमित्तो ( कुपथ्यो ) से दूर ही रहना चाहिए । इसीलिए प्राणी मात्र के परम हितैषी महर्षियो ने दो प्रकार के पथ्य के बाद दो प्रकार के कुपथ्य से बचने का भी विधान किया है । जिस प्रकार भयानक अटवी मे जाते समय सुरक्षा के लिए सुभटो को साथ रखा जाता है और लुटेरो की संगति का त्याग किया जाता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व - रत्न की सुरक्षा ~ के लिए मिथ्यात्व रूपी दो प्रकार के लुटेरो से बचते रहने की सावधानी सतत रखनी चाहिए। इनमे से पहला तो है दर्शनभ्रष्ट ( जैनत्व से च्युत होकर अजैन विचारधारा को अपना लेने वाला) और दूसरा है कुदर्शनी ( मिथ्यादर्शनी ) । इनके परिचय एवं संगति से चेपी रोग की तरह मिथ्यात्व रूपी भाव-रोग
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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